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________________ समय में दोनों उपयोग कैसे हो सकते हैं? साकार का अर्थ सविकल्प है और अनाकार का अर्थ निर्विकल्प। जो उपयोग वस्तु के विशेष अंश को ग्रहण करता है वह सविकल्प और जो उपयोग सामान्य अंश को ग्रहण करता है वह निर्विकल्प है। १८८ ज्ञान दर्शन : एक चिन्तन ज्ञान और दर्शन की मान्यता जैन-साहित्य में अत्यधिक प्राचीन है। ज्ञान को आवृत्त करने वाले कर्म का नाम ज्ञानावरण है और दर्शन को आच्छादित करने वाला कर्म दर्शनावरण है। इन कर्मों के क्षय अथवा क्षयोपशम से ज्ञान और दर्शन गुण प्रकट होते हैं। आगम-साहित्य में यत्र-तत्र ज्ञान के लिए 'जाणइ' और दर्शन के लिए 'पासइ' शब्द व्यवहृत हुआ है। दिगम्बर आचार्यों का अभिमत है कि बहिर्मुख उपयोग ज्ञान है और अन्तर्मुख उपयोग दर्शन है। आचार्य वीरसेन षट्खण्डागम की धवलाटीका में लिखते हैं कि सामान्य-विशेषात्मक बाह्यार्थ का ग्रहण ज्ञान है और तदात्मक आत्मा का ग्रहण दर्शन है। १८९ दर्शन और ज्ञान में यही अन्तर है कि दर्शन सामान्य-विशेषात्मक आत्मा का उपयोग है - स्वरूप-दर्शन है, जबकि ज्ञान आत्मा से इतर प्रमेय का ग्रहण करता है। जिसका यह मन्तव्य है कि सामान्य का ग्रहण दर्शन है और विशेष का ग्रहण ज्ञान है, वे प्रस्तुत मत के अनुसार दर्शन और ज्ञान के विषय से अनभिज्ञ हैं। सामान्य और विशेष ये दोनों पदार्थ के धर्म हैं। एक के अभाव में दूसरे का अस्तित्व नहीं है। केवल सामान्य और केवल विशेष का ग्रहण करने वाला ज्ञान अप्रमाण है। इसी तरह विशेष व्यतिरिक्त सामान्य का ग्रहण करने वाला दर्शन मिथ्या है। १९० प्रस्तुत मत का प्रतिपादन करते हुए द्रव्यसंग्रह की वृत्ति में ब्रह्मदेव ने लिखा है - ज्ञान और दर्शन का दो दृष्टियों से चिन्तन करना चाहिए - तर्कदृष्टि से और सिद्धान्तदृष्टि से। दर्शन को सामान्यग्राही मानना तर्कदृष्टि से उचित है किन्तु सिद्धान्तदृष्टि से आत्मा का सही उपयोग दर्शन है और बाह्य अर्थ का ग्रहण ज्ञान है।१९१ व्यावहारिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में भिन्नता है पर नैश्चयिक दृष्टि से ज्ञान और दर्शन में किसी भी प्रकार की भिन्नता नही है ।१९२ सामान्य और विशेष के आधार से ज्ञान और दर्शन का जो भेद किया गया है उसका निराकरण अन्य प्रकार से भी किया गया है। यह अन्य दार्शनिकों को समझाने के लिए सामान्य और विशेष का प्रयोग किया गया है किन्तु जो जैन तत्वज्ञान के ज्ञाता हैं उनके लिए आगमिक व्याख्यान ही ग्राह्य है। शास्त्रीय परम्परा के अनुसार आत्मा और इतर का भेद ही वस्तुतः सारपूर्ण है।९३ उल्लिखित विचारधारा को मानने वाले आचार्यों की संख्या अधिक नहीं है, अधिकांशतः दर्शनिक आचार्यों ने साकार और अनाकार के भेद को स्वीकार किया है। दर्शन को सामान्यग्राही मानने का तात्पर्य १८८. तत्त्वार्थसूत्र भाष्य १।९ १८१. षट्खण्डागम, धवला टीका १।१।४ १९०. षट्खण्डागम, धवला वृत्ति १।४ १९१. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा ४४ १९२. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा ४४ १९३. द्रव्यसंग्रहवृत्ति गाथा ४४ [७७ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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