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________________ उपयोग और पश्यता उनतीसवें, तीसवें और तेतीसवें, इन तीन पदों में क्रमशः उपयोग, पश्यता और अवधि की चर्चा है। प्रज्ञापना में जीवों के बोध-व्यापार अथवा ज्ञान-व्यापार के सम्बन्ध में इन पदों में चर्चा-विचारणा की गई है, अतएव हमने यहां पर तीनों को एक साथ लिया है। __ जैन दृष्टि से आत्मा विज्ञाता है, १८३ उसमें न रूप है, न रस है, न गन्ध है। वह अरूपी है, लोकप्रमाण असंख्यप्रदेशी है, नित्य है, उपयोग उसका विशिष्ट गुण है। १८४ संख्या की दृष्टि से वह अनन्त है। उपयोग आत्मा का लक्षण भी है और गुण भी, १८५ उपयोग में अवधि का समावेश होने पर भी इनके लिए अलग पद देने का कारण यह है कि उस काल में अवधि का विशेष विचार हुआ था। प्रस्तुत पद में उपयोग और पश्यता के दो दो भेद किए हैं- साकारापयोग (ज्ञान) और अनाकारोपयोग (दर्शन),साकारपश्यत और अनाकारपश्यता। ___ आचार्य अभयदेव ने पश्यता को उपयोग-विशेष ही कहा है। अधिक स्पष्टीकरण करते हुए यह भी बताया है कि जिस बोध में केवल त्रैकालिक अवबोध होता हो वह पश्यता है परन्तु जिस बोध में वर्तमानकालिक, बोध होता है वह उपयोग है। यही कारण है कि मतिज्ञान और मति अज्ञान को साकार पश्यता के भेदों में नहीं लिया है, क्योंकि मतिज्ञान और मति-अज्ञान का विषय वर्तमान काल में जो पदार्थ है वह बनता है। अनाकार पश्यता में अचक्षुदर्शन क्यों नहीं लिया गया है? इस प्रश्न का समाधान आचार्य ने इस प्रकार किया है कि पश्यता प्रकृष्ट ईक्षण है और प्रेक्षण तो केवल चक्षुदर्शन में ही सम्भव है, अन्य इन्द्रियों द्वारा होने वाले दर्शन में नहीं। अन्य इन्द्रियों की अपेक्षा चक्षु का उपयोग स्वल्पकालीन होता है और जहां पर स्वल्पकालीन उपयोग होता है वहां बोधक्रिया में अत्यन्त शीघ्रता होती है। यही इस प्रकृष्टता का कारण है।१८६ . __आचार्य मलयगिरि ने लिखा है कि पश्यता शब्द रूढ़ि के कारण उपयोग शब्द की तरह साकार और अनाकार बोध का प्रतिपादन करने वाला है, तथापि यह समझना आवश्यक है कि जहां पर लम्बे समय तक उपयोग होता है वहीं पर तीनों काल का बोध सम्भव है। मतिज्ञान में दीर्घकाल का उपयोग नहीं है। इसलिए उसमें त्रैकालिक बोध नहीं होता, जिससे उसे पश्यता में स्थान नहीं दिया गया है। १८७ यही है उपयोग और पश्यता में अन्तर। उपयोग और पश्यता इन दोनों की प्ररूपणा चौबीस दण्डकवर्ती जीवों में की गई है। वस्तुतः इनमें विशेष कोई अन्तर नहीं है। पश्यतापद में केवलज्ञानी का ज्ञान और दर्शन का उपयोग युगपत् है या क्रमशः इस सम्बन्ध में भी चर्चा करते हुए तर्क दिया है कि ज्ञान साकार है और दर्शन अनाकार। इसलिए एक ही १८३. आचारांग ५१५ सूत्र १६५ ।। १८४. आचारांग ५१६ सूत्र १७०-१७१ १८५. गुणओ उवओगगुणे। - भगवती २१ ॥११८ १८६. भगवती सूत्र, अभयदेव वृत्ति पृष्ठ ७१४ १८७. प्रज्ञापना, मलयगिरि वृत्ति पृष्ठ ७३० [७६]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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