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________________ प्रस्तुत पदों में विभिन्न प्रकृतियों के आधार पर कर्म के मूल आठ भेद कहे गये हैं । कर्म की आठों मूल प्रकृतियाँ नैरयिक आदि सभी जीवों में होती हैं । ज्ञानावरण आदि कर्मों के बन्ध का मूल कारण राग और द्वेष है। राग में माया और लोभ का तथा द्वेष में क्रोध और मान का समावेश किया गया है। कर्मों के वेदन अनुभव के सम्बन्ध में बताते हुए कहा है वेदनीय, आयु, नाम और गोत्र कर्म तो चौबीसों दण्डकों के जीव वेदते ही हैं परन्तु ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय, इन चार कर्मों को कोई जीव वेदते भी हैं और नहीं भी वेदते । यहां पर वेदना के लिए 'अनुभाव' शब्द का प्रयोग किया गया है। आहार : एक चिन्तन अट्ठाईसवें पद का नाम आहारपद है। इसमें जीवों की आहार संबंधी विचारणा दो उद्देशकों द्वारा की गई है। प्रथम उद्देशक में ग्यारह द्वारों से और दूसरे उद्देशक में तेरह द्वारों से आहार के सम्बन्ध में विचार किया गया है। चौबीस दण्डकों में जीवों का आहार सचित्त होता है, अचित्त होता है या मिश्र होता है? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है कि वैक्रियशरीरधारी जीवों का आहार सचित्त ही होता है परन्तु औदारिक शरीरधारी जीव तीनों प्रकार का आहार ग्रहण करते हैं । नारकादि चौबीस दण्डकों में सात द्वारों से अर्थात नारक आदि जीव आहारार्थी हैं या नहीं ? कितने समय के पश्चात् ये आहारार्थी होते हैं ? आहार में वे क्या लेते हैं ? सभी दिशाओं में से आहार ग्रहण कर क्या सम्पूर्ण आहार को परिणत करते हैं? जो आहार के पुद्गल वे लेते हैं, सर्वभाव से लेते हैं या अमुक भाग का ही आहार लेते हैं ? क्या ग्रहण किए हुए सभी पुद्गलों का आहार करते हैं ? आहार में लिए हुए पुद्गलों का क्या होता है ? इन सात द्वारों से आहार सम्बन्धी विचारणा की गई है । जीव जो आहार लेते हैं वह आभोगनिर्वर्तित - स्वयं की इच्छा होने पर आहार लेना और अनाभोगनिर्वर्तित बिना इच्छा के आहार लेना, इस तरह दो प्रकार का है । इच्छा होने पर आहार लेने में जीवों की भिन्न-भिन्न कालस्थित है परन्तु बिना इच्छा लिया जाने वाला आहार निरन्तर लिया जाता है। वर्ण-रस आदि से सम्पन्न अनन्त प्रदेशी स्कन्ध वाला और असंख्यातप्रदेशी क्षेत्र में अवगाढ और आत्मप्रदेशों से स्पृष्ट ऐसे पुद्गल ही आहार के लिए उपयोगी होते हैं । — — - प्रस्तुत पद के दूसरे उद्देशक में आहार, भव्य, संज्ञी, लेश्या, दृष्टि, संयत, कषाय, ज्ञान, योग, उपयोग, वेद, शरीर और पर्याप्ति इन तेरह द्वारों के माध्यम से जीवों के आहारक और अनाहारक विकल्पों की चर्चा की गई है। प्रथम उद्देशक में जो आहार के भेदों की चर्चा है, उसकी यहां पर कोई चर्चा नहीं है । आहारक और अनाहारक इन दो पदों के आधार से यह भंगों की रचना की है और किन-किन जीवों में कितने भंग (विकल्प) प्राप्त होते है, इस सम्बन्ध में चिन्तन किया गया है। - आचार्य मलयगिरि ने तीसरे संज्ञी द्वार में यह प्रश्न उत्पन्न किया है। संज्ञी का अर्थ समनस्क है । जब जीव विग्रहगति करता है उस समय जीव अनाहारक होता है । विग्रहगति में मन नहीं होता। फिर उन्हें संज्ञी कैसे कहा है? आचार्य ने इस प्रश्न का समाधान इस प्रकार किया है - जब जीव विग्रहगति करता है तब वह संज्ञी जीव सम्बन्धी आयुकर्म का वेदन करता है, इस कारण उसे संज्ञी कहा है, भले ही उस समय उसके मन न हो । दूसरा प्रश्न यह है भवनपति और वाणव्यन्तर को असंज्ञी क्यों कहा ? इसका उत्तर यह है कि नारक, इन तीनों में असंज्ञी जीव उत्पन्न होता है, इस अपेक्षा से उन्हें असंज्ञी कहा है। [ ७५ ] --
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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