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________________ और मिथ्या का व्यवहार नहीं होता। अन्य दृष्टि से लिंग, संख्या, काल, वचन आदि की दृष्टि से भाषा के सोलह प्रकार बताये हैं। शरीर : एक चिंतन बारहवें पद में जीवों के शरीर के सम्बन्ध में चिंतन किया गया है। शरीर के औदारिक, वैक्रिय, आहारक, तैजस और कार्मण ये पांच भेद हैं। १३२ उपनिषदों में आत्मा के पांच कोषों की चर्चा है १. अन्नमयकोष (स्थूल शरीर, जो अन्न से बनता है) २. प्राणमयकोष (शरीर के अन्तर्गत वायुतत्त्व)३. मनोमय-कोष (मन की संकल्प-विकल्पात्मक क्रिया) ४. विज्ञानमयकोष (बुद्धि की विवेचनात्मक क्रिया) ५. आनन्दमयकोष (आनन्द की स्थिति)। १३३ इन पांच कोषों में केवल अन्नमयकोष के साथ औदारिक शरीर की तुलना की जा सकती है। १३४ औदारिक आदि शरीर स्थूल हैं तो कार्मणशरीर सूक्ष्म शरीर है। कार्मणशरीर के कारण ही स्थूल शरीर की उत्पत्ति होती है। नैयायिकों ने कार्मणशरीर को अव्यक्त शरीर भी कहा है। १३५ सांख्य प्रभृति दर्शनों में अव्यक्त सूक्ष्म और लिंग शरीर जिन्हें माना गया है उनकी तुलना कार्मणशरीर के साथ की जा सकती है। १३६ चौबीस दंडकों में कितने कितने शरीर हैं, इस पर चिंतन कर यह बताया है कि औदारिक से वैक्रिय और वैक्रिय से आहारक आदि शरीरों के प्रदेशों की संख्या अधिक होने पर भी वे अधिकाधिक सूक्ष्म हैं। संक्षेप में औदारिक शरीर स्थूल पुद्गलों से निष्पन्न रसादि धातुमय शरीर है। यह शरीर मनुष्य और तिर्यञ्चों में होता है। वैक्रिय शरीर वह है जो विविध रूप करने में समर्थ हो, यह शरीर नैरयिक तथा देवों का होता है। वैक्रियलब्धि से सम्पन्न मनुष्यों और तिर्यञ्चों तथा वायुकाय में भी होता है। आहारक शरीर वह है जो आहारक नामक लब्धिविशेष से निष्पन्न हो। तैजस शरीर वह है जिससे तेजोलब्धि प्राप्त हो, जिससे उपघात या अनुग्रह किया जा सके, जिससे दीप्ति और पाचन हो। कार्मण शरीर वह है जो कर्मसमूह से निष्पन्न है, दूसरे शब्दों में कर्मविकार को कार्मण शरीर कह सकते हैं। तैजस और कार्मण शरीर सभी सांसारिक जीवों में होता है। भावपरिणमन : एक चिन्तन तेरहवें परिणामपद में परिणाम के संबंध में चिंतन है। भारतीय दर्शनों में सांख्य आदि दर्शन परिणामवादी हैं तो न्याय आदि कुछ दर्शन परिणामवाद को स्वीकार नहीं करते। जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी का अभेद स्वीकार किया है वे परिणामवादी हैं और जिन दर्शनों ने धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद माना है, वे अपरिणामवादी १३२. भगवतीसूत्र १७। १ सूत्र ५९२ १३३. (क) पंचदशी ३.१।११ (ख) हिन्दुधर्मकोश डॉ. राजबलि पाण्डेय १३४. तैत्तिरीय-उपनिषद्, भृगुवल्ली , बेलवलकर और रानाडे, -History of Indian Philosophy, 250 १३५. द्वे शरीरस्य प्रकृती व्यक्ता च अव्यक्ता च। तत्र अव्यक्तायाः कर्मसमाख्यातायाः प्रकृतेरुपभोगात् प्रक्षयः। प्रक्षीणे च कर्मणि विद्यमानानि भूतानि न शरीरमुत्पादयन्ति इति उपपन्नोऽपवर्गः। -न्यायवार्तिक ३ । २ । ६८ १३६. सांख्यकारिका ३९-४०, बेलवलकर और रानाडे-History of Indian Philosophy, 358, 430 & 370 [६३ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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