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________________ शब्दरूप परिणति समुत्पन्न होती है और वे शब्द मूल और बीच के शब्दों द्वारा सम्प्रेरित होकर गतिमान् होते हैं। इस तरह चार समय में सम्पूर्ण लोकाकाश उन शब्दों से व्याप्त हो जाता है। काययोग के द्वारा जीव भाषावर्गणा के पुद्गलों को ग्रहण करता है और वचनयोग के द्वारा उनका परित्याग करता है। १३१ ग्रहण करने और त्याग करने का क्रम चलता रहता है। कभी कभी जीव प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है और साथ ही कभी-कभी प्रतिपल प्रतिक्षण भाषाद्रव्य का त्याग करता है। प्रथम समय में ग्रहण किए हुए भाषाद्रव्यों को द्वितीय समय में त्याग करता है और द्वितीय समय में ग्रहण किए हुए द्रव्यों को तृतीय समय में त्याग करता है। औदारिक, वैक्रिय और आहारक शरीर वाला जीव ही भाषाद्रव्य को ग्रहण करता है। कितने हो चिन्तकों का मत है कि ब्रह्म शब्दात्मक है। समस्त विराट् विश्व शब्दात्मक है, शब्द के अतिरिक्त घट-पट आदि बाह्य पदार्थों एवं ज्ञान प्रभृति आन्तरिक पदार्थों की सत्ता का अभाव है। शब्द ही विभिन्न वस्तुओं के रूप में प्रतिभासित होता है। पर यह चिन्तन प्रमाणबाधित है। हम पूर्व में शब्द की पौद्गलिकता का समर्थन कर चुके हैं। आधुनिक वैज्ञानिक यन्त्रों के माध्यम से भी यह सत्य तथ्य उजागर हो चुका है। यन्त्र स्वयं पुद्गल रूप है इसीलिए वह पुद्गल को पकड़ने में समर्थ है। पौद्गलिक वस्तु ही पौद्गलिक वस्तु को पकड़ सकती है। भाषा के पुद्गल जब भाषा के रूप में बाहर निकलते हैं तब सम्पूर्ण लोक में व्याप्त होते हैं। लोक का आकार वज्राकार है इसलिए भाषा का आकार भी वज्राकार बतलाया गया है। लोक के आगे भाषा के पुद्गल नहीं जाते, क्योंकि गमन क्रिया में सहायभूत धर्मास्तिकाय लोक में ही है। पुद्गल, परमाणु से लेकर अनन्तप्रदेशी स्कन्ध रूप होते हैं। जो स्कन्ध अनन्तप्रदेशी हैं उन्हीं का ग्रहण भाषा के लिए उपयोगी होता है। क्षेत्र की दृष्टि से असंख्यात प्रदेशों में स्थित स्कन्ध, काल की दृष्टि से एक समय से लेकर असंख्यात समय तक की स्थिति वाले होते हैं। रूप-रस-गंध और स्पर्श की दृष्टि से भाषा के पुद्गल एक समान नहीं होते परन्तु सभी रूपादि परिणाम वाले तो होते ही हैं। स्पर्श की दृष्टि से चार स्पर्श वाले पुद्गलों का ही ग्रहण किया जाता है। आत्मा आकाश के जितने प्रदेशों का अवगाहन कर रहता है, उतने ही प्रदेशों में रहे हुए भाषा के पुद्गलों को वह ग्रहण करता है। प्रस्तुत पद में भाषा के भेदों का अनेक दृष्टियों से वर्णन किया गया है। भाषा के पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो भेद हैं। पर्याप्त के सत्यभाषा और मृषाभाषा दो भेद हैं तथा सत्यभाषा के जनपदसत्य, सम्मतसत्य, स्थापनासत्य, नामसत्य, रूपसत्य, प्रतीत्यसत्य, व्यवहारसत्य, भावसत्य, योगसत्य, औपम्यसत्य, ये दस भेद हैं। असत्य भाषा बोलने के अनेक कारण हैं। असत्यभाषा के दस भेद हैं—क्रोधनिःसृत, माननिःसृत, मायानिःसृत, लोभनिःसृत, प्रेमनिःसृत, द्वेषनिःसृत, हास्यनिःसृत, भयनिःसृत, आख्यानिकानिःसृत, उपघातनिःसृत। ____ अपर्याप्तक भाषा के सत्यामृषा और असत्यामृषा ये दो प्रकार हैं। उनमें सत्यामृषा के दस और असत्यामृषा के बारह भेद बताये गये हैं। सत्यामृषा भाषा वह है जो अर्द्ध सत्य हो और असत्यामृषा वह है जिसमें सत्य १३१. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ७ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३५३ [६२]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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