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________________ हैं। नित्यता के संबंध में भारतीय दर्शनों में तीन प्रकार के विचार हैं—सांख्य, जैन और वेदान्तियों में रामानुज? इन तीनों ने परिणामी-नित्यता स्वीकार की है। पर सांख्यदर्शन ने प्रकृति में परिणामीनित्यता मानी है, पुरुष में कूटस्थनित्यता स्वीकार की है। १३७ नैयायिकों ने सभी प्रकार की नित्य वस्तुओं में कूटस्थनित्यता मानी है। धर्म और धर्मी में अत्यन्त भेद स्वीकार करने के कारण परिणामीनित्यता के सिद्धान्त को उन्होंने मान्य नहीं किया। बौद्धों ने क्षणिकवाद स्वीकार किया है। क्षणिकवाद स्वीकार करने पर भी उन्होंने पुनर्जन्म को स्वीकार किया है। उन्होंने सन्तति-नित्यता के रूप के नित्यता का तृतीय प्रकार स्वीकार किया है। __ प्रज्ञापना के प्रस्तुत पद में जैनदृष्टि से जीव और अजीवों दोनों के परिणाम प्रतिपादित किए हैं। जिससे स्पष्ट है कि सांख्यदर्शन मान्य पुरुषकूटस्थवाद जैनों को अमान्य है। पहले जीव के परिणामों के भेद-प्रभेदों को प्रतिपादित कर नरक आदि चौबीस दण्डकों में परिणामों का विचार किया गया है। उसके पश्चात् अजीव के परिणामों की परिगणना की गई है। यहाँ पर विशेष रूप से ध्यान देने की बात यह है कि अजीव में केवल पुद्गल के परिणामों की ही चर्चा की गई है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि अरूपी अजीव द्रव्यों के परिणामों की चर्चा नहीं है। आगमप्रभावक पुण्यविजय जी महाराज व पंडित दलसुख मालवणिया आदि ने प्रज्ञापना (श्री महावीर विद्यालय, बंबई प्रकाशन) की प्रस्तावना में इस संबंध में विशेष चर्चा की है, वह चर्चा ज्ञानवर्द्धक है, अतः हम जिज्ञासुओं को उसके पढ़ने का सूचन करते हैं। यहाँ पर परिणाम का अर्थ पर्याय अथवा भावों का परिणमन है। कषाय : एक चिंतन चौदहवें पद का नाम कषायपद है। कषाय जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है। जो जीव के शुद्धोपयोग में मलीनता उत्पन्न करता है, वह कषाय है।१३८ कष का अर्थ है कुरेदना, खोदना और कृषि करना। जिससे कर्मों की कृषि लहलहाती हो वह कषाय है। कषाय के पकते ही सुख और दुःख रूपी फल निकल आते हैं कषाय शब्द कषैले रस का भी द्योतक है। जिस प्रकार कषाय रस प्रधान वस्तु के सेवन से अन्नरुचि न्यून होती है, वैसे ही कषायप्रधान जीवों में मोक्षाभिलाषा क्रमशः कम हो जाती है। कषाय वह है जिससे समता, शान्ति और संतुलन नष्ट हो जाता है।३९ कषाय एक प्रकार का प्रकम्पन है, उत्ताप है और आवर्त है, जो चैतन्योपयोग में विक्षोभ उत्पन्न करता है। क्रोध-मान-माया-लोभ इन चारों को एक शब्द में कहा जाए तो वह कषाय है। कषाय मन की मादकता है। कषाय की तुलना आवर्त से की गई है पर क्रोध के आवर्त से मान का आवर्त भिन्न है और मान के आवर्त से माया का आवर्त भिन्न है। क्रोध का आवर्त खरावर्त है। खरावर्त सागर में होने वाले तीक्ष्ण आवर्त के सहश है। मान का आवर्त उन्नतावर्त है। इस आवर्त से प्रेरित मनोदशा पहाड की चोटी को अपने बहाव में उड़ा ले जाने वाली तेज पवन के सदृश है। अभिमानी दूसरों को मिटाकर अपने-आपके अस्तित्व का अनुभव करता है। माया गूढावर्त के सदृश है। मायावी का मन घुमावदार होता १३७. द्वयी चेयं नित्यता कूटस्थनित्यता परिणामिनित्यता च। तत्र कूटस्थनित्यता पुरुषस्य। परिणामिनित्यता गुणानाम् । -पातञ्जलभाष्य ४ , ३३ १३८. प्रज्ञापना पद १४ टीका १३९. अन्नरुचिस्तम्भनकृत् कषायः। -स्थानांग टीका [६४]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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