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अष्टम संज्ञापद]
[५३५
मनुष्यों में संज्ञाओं का विचार
७३४. मणुस्साणं भंते! किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता ?
गोयमा! ओसण्णकारणं पडुच्च मेहुणसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च आहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि ।
[७३४ प्र.] भगवन् ! क्या मनुष्य आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, अथवा यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ?
[७३४ उ.] गौतम! बहुलता से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्यानुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं।
७३५. एतेसि णं भंते! मणुस्साणं आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?
गोयमा! सव्वत्थोवा मणूसा भयसण्णोवउत्ता, आहारसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, परिग्गहसण्णोउवत्ता संखेजगुणा, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेजगुणा।
___ [७३५ प्र.] भगवन् ! आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्यों में कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य या विशेषाधिक होते हैं ?
[७३५ उ.] गौतम! सबसे थोड़े मनुष्य भयसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (उनसे) आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे होते हैं, (उनसे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं (और उनसे भी) संख्यातगुणे (अधिक मनुष्य) मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं।
_ विवेचन—मनुष्यों में पाई जाने वाली संज्ञाओं और उनके अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ७३४-७३५) में क्रमशः मनुष्य में बहुलता से तथा सातत्यानुभवभाव से पाई जाने वाली संज्ञाओं एवं उन संज्ञाओं वाले मनुष्यों का अल्पबहुत्व प्रस्तुत किया गया है।
चारों संज्ञाओं की अपेक्षा से मनुष्यों का अल्पबहुत्व—भयसंज्ञोपयुक्त मनुष्य सबसे कम इसलिए बताए हैं कि कुछ ही मनुष्यों में अल्प समय तक ही भयसंज्ञा रहती है। उनकी अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे हैं, क्योंकि मनुष्यों में आहारसंज्ञा अधिक काल तक बनी रहती है। आहारसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि आहार की अपेक्षा मनुष्यों को परिग्रह की चिन्ता एवं लालसा अधिक होती है। परिग्रहसंज्ञा वाले मनुष्यों की अपेक्षा भी मैथुनसंज्ञा में उपयुक्त मनुष्य संख्यातगुणे अधिक पाए जाते हैं, क्योंकि मनुष्यों को प्रायः मैथुनसंज्ञा अतिप्रभुत काल तक बनी रहती है। देवों में संज्ञाओं का विचार
७३६. देवा णं भंते! किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता ?
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२३