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________________ ५३४] [प्रज्ञापना सूत्र तिर्यञ्चों में संज्ञाओं का विचार ७३२. तिरिक्खजोणिया णं भंते! किं आहारसण्णोवउत्ता जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता ? गोयमा! ओसण्णं कारणं पडुच्च आहारसण्णोवउत्ता, संतइभावं पडुच्च आहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि।। [७३२ प्र.] भगवन् ! तिर्यञ्चयोनिक जीव क्या आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं यावत् (अथवा) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं? __ [७३२ उ.] गौतम! बहुलता से बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं, भयसंज्ञोपयुक्त भी यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं। ७३३. एतेसि णं भंते! तिरिक्खजोणियाणं आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा तिरिक्खजोणिया परिग्गहसण्णोवउत्ता, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेजगुणा, भयसण्णोउवत्ता संखेज्जगुणा, आहारसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा। [७३३ प्र.] भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक जीवों में कौन, किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक हैं ? [७३३ उ.] गौतम! सबसे कम परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक होते हैं, (उनसे) मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे होते हैं, (उनसे) भयसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे होते हैं और उनसे भी आहारसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्चयोनिक संख्यातगुणे अधिक होते हैं। विवेचनतिर्यञ्चों में पाई जाने वाली संज्ञाएँ तथा उनके अल्पबहुत्व का विचार-प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ७३२-७३३) में से प्रथम सूत्र में तिर्यञ्चों में बहुलता से तथा आन्तरिक अनुभवसातत्य से पाई जाने वाली संज्ञाओं का निरूपण है और द्वितीय सूत्र में उन-उन संज्ञाओं से उपयुक्त तिर्यञ्चों के अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। संज्ञाओं की दृष्टि से तिर्यञ्चों का अल्पबहुत्व—परिग्रहसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च सबसे कम होते हैं, क्योंकि तिर्यञ्चों में एकेन्द्रियों की संज्ञा बहुत ही अव्यक्त होती है, शेष तिर्यञ्चों में भी परिग्रहसंज्ञा अल्पकालिक होती है, अतः पृच्छासमय में वे थोड़े ही पाए जाते हैं। परिग्रहसंज्ञा वालों की अपेक्षा मैथुनसंज्ञोपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक इसलिए बताए हैं कि उनमें मैथुनसंज्ञा का उपयोग प्रचुरतर काल तक बना रहता है। उनकी अपेक्षा भयसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन्हें सजातियों (तिर्यञ्चों) और विजातियों (तिर्यञ्चेतर प्राणियों) से भय बना रहता है और भय का उपयोग प्रचुरतम काल तक रहता है। उनकी अपेक्षा भी आहारसंज्ञा में उपयुक्त तिर्यञ्च संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि सभी तिर्यञ्चों में प्रायः सतत (हर समय) आहारसंज्ञा का सद्भाव रहता है। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति पत्रांक २२३
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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