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________________ अष्टम संज्ञापद] [५३३ [७३१ उ.] गौतम! सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त, नैरयिक हैं, उनसे संख्यातगुणे आहारसंज्ञोपयुक्त हैं, उनसे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नैरयिक संख्यातगुणे हैं और उनसे भी संख्यातगुणे अधिक भयसंज्ञोपयुक्त नैरयिक हैं। विवेचन–नारकों में पाई जाने वाली संज्ञाओं के अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ७३०-७३१) में दो दृष्टियों से आहारादि चार संज्ञाओं में से नारकों में पाई जाने वाली संज्ञाओं तथा उनके अल्पबहुत्व का विचार किया गया है। ___ 'ओसन्नकारणं' तथा 'संतइभावं' की व्याख्या-'ओसन्न'-(उत्सन्न) का अर्थ यहाँ ‘बाहुल्य अर्थात् प्राय: अधिकांशरूप' से है। 'कारण' शब्द का अर्थ है-बाह्यकारण। इसी प्रकार संतइभाव (संततिभाव) का अर्थ है-सातत्य (प्रवाह) रूप से आन्तरिक अनुभवरूप भाव। नैरयिकों में भयसंज्ञा की बहुलता का कारण-नैरयिकों में नरकपाल परमाधार्मिक असुरों द्वारा विक्रिया से कृत शूल, शक्ति, भाला आदि भयोत्पादक शस्त्रों का अत्यधिक भय बना रहता है। इसी कारण यहाँ बताया गया है कि बाह्य कारण की अपेक्षा से नैरयिक बहुलता से (प्रायः) भययसंज्ञोपयुक्त होने हैं। ___ सतत आन्तरिक अनुभवरूप कारण की अपेक्षा से चारों संज्ञाएँ-आन्तरिक अनुभवरूप मनोभाव की अपेक्षा से नैरयिकों में आहारादि चारों संज्ञाएँ पाई जाती हैं। नैरयिकों में चारों संज्ञाओं की अपेक्षा से अल्पबहुत्व का विचार–सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारक हैं, क्योंकि नैरयिकों के शरीर रातदिन निरन्तर दुःख की अग्नि से संतप्त रहते हैं, आँख की पलक झपकने जितने समय तक उन्हें सुख नहीं मिलता। अहर्निश दुःख की आग में पचने वाले नारकों को मैथुनेच्छा नहीं होती। कदाचित् कि न्हीं को मैथुनसंज्ञा होती भी है तो वह भी थोड़े-से समय तक रहती है। इसलिए यहाँ नैरयिकों में सबसे थोड़े मैथुनसंज्ञोपयुक्त होते हैं। मैथुनसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा आहारसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक हैं, क्योंकि उन दुःखी नारकों में प्रचुरकाल तक आहार की संज्ञा बनी रहती है। आहारसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारक संख्यातगुणे अधिक इसलिए होते हैं कि नैरयिकों को आहारसंज्ञा सिर्फ शरीरपोषण के लिए होती है, जबकि परिग्रहसंज्ञा शरीर के अतिरिक्त जीवनरक्षा के लिए शस्त्र आदि में होती है और वह चिरस्थायी होती है और परिग्रहसंज्ञोपयुक्त नारकों की अपेक्षा भयसंज्ञा वाले नारक संख्यातगुणे अधिक इसलिए बताए हैं कि नरक में नारकों को मृत्युपर्यन्त सतत भय की वृत्ति बनी रहती है। इस कारण भयसंज्ञा वाले नारक पूर्वोक्त तीनों संज्ञाओं वालों से अधिक हैं तथा पृच्छा समय में भी नारक अतिप्रभूततम भयसंज्ञोपयुक्त पाये जाते हैं। १. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२३
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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