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[प्रज्ञापना सूत्र गोयमा! उस्सण्णं कारणं पडुच्च परिग्गहसण्णोवउत्ता, संततिभावं पडुच्च आहारसण्णोवउत्ता वि जाव परिग्गहसण्णोवउत्ता वि।
[७३६ प्र.] भगवन्! क्या देव आहारसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (अथवा) यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं ?
[७३६ उ.] गौतम! बाहुल्य से (प्रायः) बाह्य कारण की अपेक्षा से (वे) परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं, (किन्तु) आन्तरिक सातत्य अनुभवरूप भाव की अपेक्षा से (वे) आहारसंज्ञापयुक्त भी होते हैं, यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त भी होते हैं।
७३७. एतेसि णं भंते! देवाणं आहारसण्णोवउत्ताणं जाव परिग्गहसण्णोवउत्ताण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?
गोयमा! सव्वत्थोवा देवा आहारसण्णोवउत्ता, भयसण्णोवउत्ता संखेज्जगुणा, मेहुणसण्णोवउत्ता संखेजगुणा, परिग्गहसण्णोवउत्ता संखेन्जगुणा।
॥पण्णवणाए भगवईए अट्ठमं सण्णापयं समत्तं॥ [७३७ प्र.] भगवन् ! इन आहारसंज्ञोपयुक्त यावत् परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देवों में से कौन किनसे अल्प, बहुत, तुल्य अथवा विशेषाधिक होते हैं ?
[७३७ उ.] गौतम! सबसे थोड़े आहारसंज्ञोपयुक्त देव हैं, (उनकी अपेक्षा) भयसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे हैं, (उनकी अपेक्षा) मैथुनसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे हैं और उनसे भी संख्यातगुणे परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देव हैं।
विवेचन देवों में पाई जाने वाली संज्ञाओं और उनके अल्पबहुत्व का विचार–प्रस्तुत दो सूत्रों (सू. ७३६-७३७) में देवों में बाहुल्य से परिग्रहसंज्ञा का तथा आन्तरिक अनुभव की अपेक्षा से चारों ही संज्ञाओं के निरूपण पूर्वक चारों संज्ञाओं की अपेक्षा से उनके अल्पबहुत्व का विचार किया गया है।
देवों में बाहुल्य से परिग्रहसंज्ञा क्यों ? – देव अधिकांशतः परिग्रहसंज्ञोपयुक्त होते हैं। क्योंकि परिग्रहसंज्ञा के जनक कनक, मणि, रत्न आदि में उन्हें सदा आसक्ति बनी रहती है। .
देवों का चारों संज्ञाओं की अपेक्षा से अल्पबहुत्व—सबसे कम आहारसंज्ञोपयुक्त देव होते हैं, क्योंकि देवों की आहारेच्छा का विरहकाल बहुत लम्बा होता है तथा आहारसंज्ञा के उपयोग का काल बहुत थोड़ा होता है। अतएव पृच्छा के समय वे थोड़े ही पाए जाते है। आहारसंज्ञोपयुक्त देवों की अपेक्षा भयसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे अधिक होते हैं, क्योंकि भयसंज्ञा बहुत-से देवों को चिरकाल तक रहती है। भयसंज्ञोपयुक्त देवों की अपेक्षा मैथुनसंज्ञा वाले देव संख्यातगुणे अधिक और उनसे भी परिग्रहसंज्ञोपयुक्त देव संख्यातगुणे कहे गए हैं, कारण पहले बताया जा चुका है।
॥ प्रज्ञापना सूत्र : अष्टम संज्ञापद समाप्त ॥
१. प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२४