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अष्टम संज्ञापद ]
में जीव की परिणति (परिणामधारा)। (७) मायासंज्ञा - मायामोहनीय के उदय से अशुभ-अध्यवसायपूर्वक मिथ्याभाषण आदि रूप क्रिया करने की वृत्ति । (८) लोभसंज्ञा - लोभमोहनीय के उदय से सचित - अचित पदार्थों की लालसा। (९) लोकसंज्ञा - लोक में रूढ़ किन्तु अन्धविश्वास, हिंसा, असत्य आदि के कारण हेय होने पर भी लोकरूढ़ि का अनुसरण करने की प्रबल वृत्ति या अभिलाषा । अथवा मतिज्ञानावरणीय के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर, रुचिकर पदार्थों को ( या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थों) को विशेषरूप से जानने की तीव्र अभिलाषा । (१०) ओघसंज्ञा - बिना उपयोग के ( बिना सोचे-विचारे) धुन - ही - धुन में किसी कार्य को करने की वृत्ति या प्रवृत्ति अथवा सनक । जैसे- उपयोग या प्रयोजन के बिना ही यों ही किसी वृक्ष पर चढ़ जाना अथवा बैठे-बैठे पैर हिलाना, तिनके तोड़ना आदि । अथव मतिज्ञानावरणीय कर्म ‘के क्षयोपशम से संसार के सुन्दर रुचिकर पदार्थों या लोकप्रचलित शब्दों के अनुरूप पदार्थों (अर्थों) को सामान्यरूप से जानने की अभिलाषा । इन दस ही प्रकार की संज्ञाओं में पूर्वोक्त व्युत्पत्तिलभ्य दोनों अर्थ भी घटित हो जाते हैं । उक्त दसों संज्ञाओं में से प्रारम्भ की चार संज्ञाओं में से जिस प्राणी में जिस संज्ञा का बाहुल्य हो उस पर से उसे जान - पहिचान लिया जाता है । जैसे- नैरयिकों की संज्ञा की अधिकता के कारण जान लिया जाता है अथवा जिसमें जिस प्रकार की अभिलाषा, मनोवृत्ति या प्रवृत्ति हो, उसे वह संज्ञा समझ ली जाती है।
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नैरयिकों से वैमानिकों तक में संज्ञाओं की प्ररूपणा
७२६. नेरइयाणं भंते! कति सण्णाओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ । तं जहा - आहारसण्णा १ भयसण्णा २ मेहुणसण्णा ३ परिग्गहसण्णा ४ कोहसण्णा ५ माणसण्णा ६ मायासण्णा ७ लोभसण्णा ८ लोगसण्णा ९ ओघसण्णा १० ।
[७२६ प्र.] भगवन्! नैरयिकों में कितनी संज्ञाएँ कही गई हैं ?
[७२६ उ.] गौतम! उनमें दस संज्ञाएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार है - (१) आहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, (४) परिग्रहसंज्ञा, (५) क्रोधसंज्ञा, (६) मानसंज्ञा, (७) मायासंज्ञा, (८) लोभसंज्ञा, (९) लोकसंज्ञा और (१०) ओधसंज्ञा ।
७२७. असुरकुमाराणं भंते! कति सण्णाओ पण्णत्ताओ ?
गोयमा ! दस सण्णओ पण्णत्ताओ । तं जहा - आहारसण्णा जाव ओघसण्णा ।
१.
[७२७ प्र.] भगवन्! असुरकुमार देवों में कितनी संज्ञाएँ कही हैं ?
[७२७ उ.] गौतम! असुरकुमारों में दसों संज्ञाएँ कही गई हैं। वे इस प्रकार-आहारसंज्ञा यावत् औघसंज्ञा ।
(क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२२ (ख) प्रज्ञापना. प्रमेयबोधिनीटीका भा. ३, पृ. ४०-४१