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अट्ठमं सण्णापयं
अष्टम संज्ञापद
संज्ञाओं के दस प्रकार
७२५. कति णं भंते! सण्णाओ पण्णत्ताओ?
गोयमा ! दस सण्णाओ पण्णत्ताओ। तं जहा-आहारसण्णा १ भयसण्णा २ मेहुणसण्णा ३ परिग्गहसण्णा ४ कोहसण्णा ५ माणसण्णा ६ मायासण्णा ७ लोभसण्णा ८ लोगसण्णा ९ ओघसण्णा १०।
[७२५ प्र.] भगवन् ! संज्ञाएँ कितनी कही गई हैं ?
[७२५ उ.] गौतम! संज्ञाएं दस कही गई हैं। वे इस प्रकार हैं-(१) आहारसंज्ञा, (२) भयसंज्ञा, (३) मैथुनसंज्ञा, (४) परिग्रहसंज्ञा, (५) क्रोधसंज्ञा, (६) मानसंज्ञा, (७) मायासंज्ञा,(८) लोभसंज्ञा, (९) लोकसंज्ञा और (१०) ओघसंज्ञा।
विवेचन—संज्ञाओं के दस प्रकार—प्रस्तुत सूत्र (७२५) में आहारसंज्ञा आदि दस प्रकार की संज्ञाओं का निरूपण किया गया है। _. संज्ञा के व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ और शास्त्रीय परिभाषा-संज्ञा की व्युत्पत्ति के अनुसार उसके दो अर्थ फलित होते हैं-(१) संज्ञान अर्थात्-आभोग संज्ञा है। (२) जीव जिस-जिसके निमित्त से सम्यक् प्रकार से जाना-पहिचाना जाता है, उसे संज्ञा कहते हैं; किन्तु संज्ञा की शास्त्रीय परिभाषा इस प्रकार हैवेदनीय और मोहनीय कर्म के उदय से तथा ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म के क्षयोपशम से विचित्र आहारादिप्राप्ति की (अभिलाषारूप, रुचिरूप या मनोवृत्तिरूप) क्रिया। यह संज्ञा उपाधिभेद से दस प्रकार की है।
संज्ञा के दस भेदों की शास्त्रीय परिभाषा-(१) आहारसंज्ञा-क्षुधावेदनीयकर्म के उदय से ग्रासादिरूप आहार के लिए तथाविध पुद्गलों की ग्रहणाभिलाषारूप क्रिया। (२) भयसंज्ञा-भयमोहनीकर्म के उदय से भयभीत प्राणी के नेत्र, मुख में विकारोत्पत्ति, शरीर में रोमाञ्च, कम्पन, घबराहट आदि मनोवृत्तिरूप क्रिया। (३) मैथुनसंज्ञा-पुरुषवेद (मोहनीयकर्म) के उदय से स्त्री-प्राप्ति की अभिलाषा रूप तथा स्त्रीवेद के उदय से पुरुष-प्राप्ति की अभिलाषारूप एवं नपुंसकवेद के उदय से दोनों की अभिलाषारूप क्रिया। (४) परिग्रहसंज्ञा-लोभमोहनीय के उदय से संसार के प्रधानकारणभूत सचितअचित पदार्थों के प्रति आसक्तिपूर्वक उन्हें ग्रहण करने की अभिलाषारूप क्रिया। (५) क्रोधसंज्ञाक्रोधमोहनीय के उदय से प्राणी के मुख, शरीर में विकृति होना, नेत्र लाल होना तथा ओठ फड़कना आदि कोपवृत्ति के अनुरूप चेष्टा। (६) मानसंज्ञा-मानमोहनीय के उदय से अहंकार, दर्प, गर्व आदि के रूप