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सप्तम उच्छ्वासपद ]
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गोयमा! अजहण्णमणुक्कोसेणं तेत्तीसाए पक्खाणं जाव नीससंति वा।
॥पण्णवणाए भगवईए सत्तमं उस्सासपयं समत्तं॥ [७२४ प्र.] भगवन् ! सर्वार्थसिद्ध विमान के देव कितने काल से (आन्तरिक) उच्छ्वास यावत् (बाह्य) नि:श्वास लेते हैं ?
[७२४ उ.] गौतम! (वे) अजघन्य-अनुत्कृष्ट (जघन्य और उत्कृष्ट के भेद से रहित) तेतीस पक्षों में (अन्तःस्फुरित) उच्छ्वास यावत् (बाह्यस्फुरित) नि:श्वास लेते हैं।
विवेचन–नैरयिकों से लेकर वैमानिकों तक के श्वासोच्छ्वास की प्ररूपणा–प्रस्तुत पद के कुल बत्तीस सूत्रों (सू. ६९३ से ७२४ तक) में क्रमशः नैरयिक से लेकर वैमानिक देवों तक चौबीस दण्डकवर्ती संसारी जीवों की अन्तःस्फुरित एवं बाह्यस्फुरित उच्छ्वास-नि:श्वास क्रिया जघन्य एवं उत्कृष्ट कितने काल के अन्तर से होती है? इसकी प्ररूपणा की गई है।
प्रश्न का तात्पर्य—जो प्राणी नारक आदि पर्यायों में उत्पन्न हुए हैं और श्वासोच्छ्वासपर्याप्ति से पर्याप्त हैं, वे कितने काल के बाद उच्छ्वास-निःश्वास लेते हैं? अर्थात् एक श्वासोच्छ्वास लेने के पश्चात् दूसरा श्वासोच्छ्वास लेने तक में उनके उच्छ्वास-नि:श्वास का विरहकाल कितना होता है? यही इस पद के प्रत्येक प्रश्न का तात्पर्य है।
आणमंति, पाणमंति, ऊससंति, नीससंति पदों की व्याख्या—'अन् प्राणने' धातु से 'आङ्' उपसर्ग लगने पर 'आनन्ति' और 'प्र' उपसर्ग लगने पर 'प्राणन्ति' रूप बनता है तथा सामान्यतया 'आनन्ति'
और 'उच्छ्वसन्ति' का तथा 'प्राणन्ति' और 'निःश्वसन्ति' का एक ही अर्थ है, फिर समानार्थक दो-दो क्रियापदों का प्रयोग यहां क्यों किया गया? ऐसी शंका उपस्थित होती है। इसके दो समाधान यहाँ प्रस्तुत किये गए हैं—एक तो यह है कि भगवान् के पट्टधर शिष्य श्री गौतमस्वामी ने अपने प्रश्न को स्पष्टरूप से प्रस्तुत करने के लिए समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है—जैसे कि 'नैरयिक' कितने काल से श्वास लेते हैं अथवा यों कहें कि ऊँचा श्वास और नीचा श्वास लेते हैं?' भगवान् के ऐसे प्रश्न के उत्तर में अपने शिष्य के पुनरुक्त वचन के प्रति आदर प्रदर्शित करने हेतु उन्हीं समानार्थक दो-दो शब्दों का प्रयोग किया है, क्योंकि गुरुओं के द्वारा शिष्यों के वचन को आदर दिये जाने से शिष्यों को सन्तोष होता है, वे पुनः-पुनः अपने प्रश्नों का निर्णयात्मक उत्तर सुनने के लिए उत्सुक रहते हैं तथा उन शिष्यों के वचन भी जगत् में आदरणीय समझे जाते हैं। दूसरा समाधान यह है कि 'आनन्ति' और 'प्राणन्ति' का अर्थ अन्तर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-नि:श्वास क्रिया और 'उच्छ्वसन्ति' एवं 'निःश्वसन्ति' का अर्थ बाहर में स्फुरित होने वाली उच्छ्वास-नि:श्वास क्रिया समझना चाहिए। अतः यहाँ पुनरुक्ति नहीं किन्तु अर्थभेद के कारण पृथक्-पृथक् क्रियापदों का प्रयोग किया गया है।
नारकों की सतत उच्छ्वास-निःश्वासक्रिया का रहस्य-भगवान् ने नैरयिकों के उच्छ्वास सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में फरमाया कि नैरयिक सदैव निरन्तर अविच्छिन्न रूप से उच्छ्वास-निश्वास