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[प्रज्ञापना सूत्र लेते रहते हैं, इस कारण उनका श्वासोच्छ्वास लगातार चालू रहता है, एक बार श्वासोच्छ्वास लेने के बाद दूसरी बार के श्वासोच्छ्वास लेने के बीच में व्यवधान (विरह) नहीं रहता।
विमात्रा से उच्छ्वास-निःश्वास लेने का तात्पर्य—पृथ्वीकायिक आदि समस्त एकेन्द्रिय जीव तथा द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय एवं मनुष्य, ये विमात्रा से उच्छ्वास-नि:श्वास लेते हैं, इसका अर्थ है-इनके उच्छ्वास के विरह का कोई काल नियत नहीं है, जो स्वस्थ और सुखी अथवा प्राणायाम करने वाले योगी होते हैं, वे दीर्घकाल से श्वासोच्छ्वास लेते हैं, किन्तु अस्वस्थ और दुःखी या रोगी-जल्दी जल्दी श्वास लेते हैं।
देवों में उत्तरोत्तर दीर्घकाल के अनन्तर उच्छ्वास-निःश्वास लेने का रहस्य–देवों में जो देव जितनी अधिक आयु वाला होता है, वह उतना ही अधिक सुखी होता है और जो जितना अधिक सुखी होता है, उसके उच्छ्वास-नि:श्वास का विरहकाल उतना ही अधिक लम्बा होता है, क्योंकि उच्छ्वासनिःश्वास क्रिया दुःखरूप है। इसलिए देवों में जैसे-जैसे आयु के सागरोपम में वृद्धि होती है, उतनेउतने श्वासोच्छ्वासविरह के पक्षों में वृद्धि होती जाती है।
॥ प्रज्ञापनासूत्र : सप्तम उच्छ्वासपद समाप्त॥
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प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक २२०-२२१