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सत्तमं उस्सासपयं
सप्तम उच्छ्वासपद
प्राथमिक
0 प्रज्ञापनासूत्र के सप्तम 'उच्छ्वासपद' में सिद्ध जीवों के सिवाय समस्त संसारी जीवों के श्वासोच्छ्वास
के विरहकाल की चर्चा है। जीवनधारण के लिए प्रत्येक प्राणी को श्वासोच्छ्वास की आवश्यकता है। चाहे वह मुनि हो, चक्रवर्ती हो, राजा हो अथवा किसी भी प्रकार का देव हो, नारक हो अथवा एकेन्द्रिय से लेकर तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय तक किसी भी जाति का प्राणी हो। इसलिए श्वासोच्छ्वासरूप प्राण का अत्यन्त महत्त्व है और यह 'जीवतत्त्व' से विशेषरूप से सम्बन्धित है। इस कारण शास्त्रकार ने इस पद की रचना करके प्रत्येक प्रकार के जीव के श्वासोच्छ्वास के विरहकाल की प्ररूपणा की है। 0 इस पद के प्रत्येक सूत्र के मूलपाठ में 'आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा' यों चार क्रियापद हैं। वृत्तिकार आचार्य मलयगिरि 'आणमंति' और 'ऊससंगि' को तथा 'पाणमंति' और 'नीससंति' को एकार्थक मानते हैं, परन्तु उन्होंने अन्य आचार्यों का मत भी दिया है। उनके अनुसार प्रथम के दो क्रियापदों को बाह्य श्वासोच्छ्वास क्रिया के अर्थ में माना गया है। 0 प्रस्तुत पद में सर्वप्रथम नैरयिकों के उच्छ्वासनिः श्वास-विरहकाल की, तत्पश्चात् दस भवनपति
देवों, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रियों, द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रियों तथा पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों, मनुष्यों के श्वासोच्छ्वास-विरहकाल की चर्चा की है। अन्त में वाणव्यन्तरों ज्योतिष्कों, सौधर्मादि वैमानिकों एवं नौ ग्रैवेयकों तथा पांच अनुत्तर विमानवासी देवों के उच्छ्वास-नि:श्वास-विरह काल की पृथक्पृथक् प्ररूपणा की है। - समस्त संसारी जीवों के उच्छ्वास-निःश्वासविरहकाल की इस प्ररूपणा पर से एक बात स्पष्ट फलित
होती है, जिसकी ओर वृत्तिकार ने ध्यान खींचा है। वह यह कि जो जीव जितने अधिक दुःखी होते हें, उन जीवों की श्वासोच्छ्वासक्रिया उतनी ही अधिक और शीघ्र चलती है और अत्यन्त दुःखी जीवों के तो यह क्रिया सतत अविरत रूप से चला करती है। जो जीव जितने-जितने अधिक, अधिकतर या अधिकतम सुखी होते हैं, उनकी श्वासोच्छ्वास क्रिया उत्तरोत्तर देर से चलती है। अर्थात् उनका श्वासोच्छ्वास विरहकाल उतना ही अधिक, अधिकतर और अधिकतम है; क्योंकि श्वासोच्छवास क्रिया अपने आप में दुःखरूप है, यह बात स्वानुभव से भी सिद्ध है, शास्त्रसमर्थित भी है।
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २२०-२२१ (ख) पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भा.१, १८४ से १८७ २. (क) प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक २२० (ख) पण्णवणासुत्तं (परिशिष्ट प्रस्तावनात्मक) भा. २,१.७५