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छठा व्युत्क्रान्तिपद ]
[५१७ विवेचन—आठवाँ आकर्षद्वार : सभी जीवों के छह प्रकार के आयुष्यबन्ध, उनके आकर्षों की संख्या और अल्पबहुत्व—प्रस्तुत अष्टमद्वार में नौ सूत्रों (सू. ६८४ से ६९२ तक) द्वारा तीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं
१. जीवसामान्य के तथा नारकों से वैमानिकों तक का छह प्रकार का आयुष्यबन्ध ।
२. जीव सामान्य तथा नारकादि वैमानिकपर्यन्त जीवों द्वारा जातिनामनिधत्तायु आदि छहों का जघन्य एक, दो या तीन तथा उत्कृष्ट आठ आकर्षों से बन्ध की प्ररूपणा।
३. जातिनामनिधत्तायु आदि प्रत्येक आयु को जघन्य-उत्कृष्ट आकर्षों से बांधने वाले जीवों का अल्पबहुत्व। . ____ आयुष्यबन्ध के छह प्रकारों का स्वरूप-(१) जातिनामनिधत्तायु-जैनदृष्टि से एकेन्द्रियादि . रूप पांच प्रकार की जातियां हैं। वे नामकर्म की उत्तरप्रकृतिविशेष रूप हैं, उस 'जातिनाम' के साथ निधत्त अर्थात्-निषिक्त जो आयु हो, वह 'जातिनामनिधत्तायु' है। 'निषेक' कहते हैं-कर्मपुद्गलों के अनुभव करने के लिए रचनाविशेष को। वह रचना इस प्रकार की होती है-अपने अबाधाकाल को छोड़कर (क्योंकि अबाधाकाल में कर्मपुद्गलों का अनुभव नहीं होता, इसलिए उसमें कर्मदलिकों की रचना नहीं होती।) प्रथम-जघन्य अन्तर्मुहूर्तरूप स्थिति में बहुतर द्रव्य होता है। एक आकर्ष में ग्रहण किए हुए कर्मदलिकों में बहुत-से जघन्य स्थिति वाले ही होते हैं। शेष एक समय आदि से अधिक अन्तर्मुहूर्त्तादि स्थिति में विशेष हीन (कम) द्रव्य होता है, एवं यावत् उत्कृष्ट स्थिति में उत्कृष्टतः (विशेषहीन अर्थात्-सर्वहीन सबसे कम) दलिक होते हैं। (२) गतिनामनिधत्तायु-गतियां चार हैनरकगति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति । गतिरूप नामकर्म 'गतिनाम' है। उसके साथ निधत्त (निषक्त) आयु 'गतिनामनिधत्तायु' कहलाती है। (३) स्थितिनामनिधत्तायु-उस-उस भव में (आयुष्यबल से) स्थिति रहना स्थिति है। स्थितिप्रधान नाम (नामकर्म) स्थितिनाम है। उसके साथ निधत्त आयु 'स्थितिनामनिधत्तायु' है। जो जिस भव में उदय प्राप्त रहता है, वह स्थितिनाम है; जो कि गति, जाति तथा पांच शरीरों से भिन्न है। (४) अवगाहनानामनिधत्तायु-जिसमें जीव अवगाहन करे उसे अवगाहना कहते हैं। औदारिकादि शरीर उनका निर्माण करने वाला औदारिकादि शरीरनामकर्म-अवगाहनानाम है। उसके साथ निधत्त आयु, 'अवगाहहनानामनिधत्तायु' कहलाती है। (५) प्रदेशनामनिधत्तायु-प्रदेश कहते हैं-कर्मपरमाणुओं को। वे प्रदेश संक्रम से भी भोगे जाने वाले ग्रहण किए जाते हैं। उन प्रदेशों की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) प्रदेशनाम कहलाता है, तात्पर्य यह है कि जो जिस भव में प्रदेश से विपाकोदय के बिना ही भोगा (अनुभव किया) जाता है वह प्रदेशनाम कहलाता है। उक्त प्रदेशनाम के साथ निधत्त आयु को 'प्रदेशनामनिधत्तायु' कहते हैं ।(६) अनुभावनामनिधत्तायु-अनुभाव कहते हैंविपाक को। यहाँ प्रकर्ष अवस्था को प्राप्त विपाक ही ग्रहण किया जाता है। उस अनुभव-विपाक की प्रधानता वाला नाम (नामकर्म) 'अनुभावनाम' कहलाता है। तात्पर्य यह है कि जिस भव में जो तीव्र विपाक वाला नामकर्म भोगा जाता है, वह अनुभावनाम कहलाता है। जैसे-नरकायु में अशुभ वर्ण, गन्ध,