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________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [५११ सिद्ध होते हैं, बुद्ध (केवलबोधप्राप्त) होते हैं, मुक्त होते हैं, परिनिर्वाण को प्राप्त करते हैं और सर्वदुःखों का अन्त करते हैं। ६७४. वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया सोहम्मीसाणा य जहा असुरकुमारा। नवरं जोइसियाणं वेमाणियाण य चयंतीति अभिलावो कातव्वो। [६७४] वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म एवं ईशान देवलोक के वैमानिक देवों की उद्वर्त्तनप्ररूपणा असुरकुमारों के समान, समझनी चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए (उद्वर्त्तना करते हैं) के बदले 'च्यवन करते हैं', यों कहना चाहिए। ६७५. सणंकुमारदेवाणं पुच्छा। गोयमा! जहा असुरकुमारा। नवरं एगिदिएसु ण उववजंति। एवं जाव सहस्सारगदेवा। [६७५ प्र.] भगवन् ! सनत्कुमार देव अनन्तर च्यवन करके कहाँ जाते हैं, कहाँ उत्पन्न होते हैं? [६७५ उ.] इनकी (च्यवनानन्तर उत्पत्तिसम्बन्धी) वक्तव्यता असुरकुमारों के (उपपातसम्बन्धी वक्तव्य के) समान समझनी चाहिए। विशेष यह है कि (ये) एकेन्द्रियों में उत्पन्न नहीं होते। इसी प्रकार की वक्तव्यता सहस्रार देवों तक की कहनी चाहिए। ६७६. आणय जाव अणुत्तरोववाइया देवा एवं चेव। णवरं णो तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणूसेसु पज्जत्तगसंखेन्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कंतियमणूसेसु उववज्जति। दारं ६॥ [६७६] आनत देवों से लेकर अनुत्तरौपपातिक देवों तक (च्यवनानन्तर उत्पत्ति-सम्बन्धी) वक्तव्यता इसी प्रकार समझनी चाहिए। विशेष यह है कि (ये देव) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न नहीं होते, मनुष्यों में भी पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं। -छठा उद्वर्तनाद्वार ॥६॥ _ विवेचन-छठा उद्वर्त्तनाद्वार : चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्त्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा–प्रस्तुत ग्यारह सूत्रों (सू. ६६६ से ६७६ तक) में नैरयिकों से लेकर देवों तक के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उपपात के सम्बन्ध में सूक्ष्म ऊहापोहपूर्वक प्ररूपणा की गई है। उद्वर्त्तना की परिभाषा—नारकादि जीवों का अपने भव से निकलकर (मरकर या च्यवकर) सीधे (बीच में कहीं अन्तर-व्यवधान न करके) किसी भी अन्य गति या योनि में जाना और उत्पन्न होना उद्ववर्त्तना कहलाता है। निष्कर्ष-अपने भव से (मृत या च्युत होकर) निकले हुए नैरयिकों का सीधा (साक्षात्) उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों और मनुष्यों में होता है; सातवीं नरकपृथ्वी के नैरयिकों का उत्पाद गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों में होता है, असुरकुमारादि भवनपति, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और सौधर्म तथा ईशान कल्प के वैमानिक देवों का उत्पाद बादर पर्याप्त पृथ्वीकायिक, अप्कायिक एवं वनस्पतिकायिकों में तथा गर्भज संख्यातवर्षायुष्क तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों एवं मनुष्यों में होता है। पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, वनस्पतिकायिक तथा द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों का उत्पाद तिर्यञ्चगति और मनुष्यगति में
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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