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[ प्रज्ञापना सूत्र [६] एवं आउ-वणस्सतीसु वि भाणितव्वं । ___ [६६८-६] इसी प्रकार अप्कायिकों और वनस्पतिकायिकों में (उत्पत्ति के विषय में) भी कहना चाहिए।
[७] पंचेंदियतिरिक्खजोणिय-मणूसेसू य जहा नेरइयाणं उव्वट्टणा सम्मुच्छिमवजा तहा भाणितव्वा।
[६६८-७] पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में (असुरकुमारों की उत्पत्ति के विषय में) उसी प्रकार कहना चाहिए, जिस प्रकार सम्मूछिम को छोड़कर नैरयिकों की उद्वर्त्तना कही है।
[८] एवं जाव थणियकुमारा। [६६८-८] इसी प्रकार (असुरकुमारों की तरह) स्तनितकुमारों तक की उद्वर्तना समझ लेनी चाहिए।
६६९. [१] पुढविकाइया णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? किं नेरइएसु जाव देवेसु ?
गोयमा ! नो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिय-मणूसेसु उववजंति, नो देवेसु ।
[६६९-१ प्र.] भगवन् ! पृथ्वीकायिक जीव सीधे निकल कर (अनन्तर उद्वर्तन करके) कहाँ जाते हैं? कहाँ उत्पन्न होते हैं? क्या वे नारकों में यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ?
[६६९-१ उ.] गौतम! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों और मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं, देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं।
[२] एवं जहा एतेसिं चेव उववाओ तहा उव्वट्टणा वि' भाणितव्वा ।
[६६९-२] इसी प्रकार जैसा इनका उपपात कहा है, वैसी ही इनकी उद्वर्त्तना भी (देवों को छोड़कर) कहनी चाहिए।
६७०. एवं आउ-वणस्सइ-बेइंदिय-तेइंदिय-चउरेंदिया वि ।
[६७०] इसी प्रकार अप्कायिक, वनस्पतिकायिक, द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रियों (की भी उद्वर्तना कहनी चाहिए।
६७१. एवं तेऊ वाऊ वि। णवरं मणुस्सवजेसु उववजंति । __[६७१] इसी प्रकार तेजस्कायिक और वायुकायिक की भी, उद्वर्त्तना कहनी चाहिए। विशेष यह है कि (वे) मनुष्यों को छोड़कर उत्पन्न होते हैं।
६७२. [१] पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! अणंतरं उव्वट्टित्ता कहिं गच्छंति कहिं उववजंति ? किं नेरइएसु जाव देवेसु ?
१. पाठान्तर 'देव-वज्जा' यह अधिक पाठ किसी-किसी प्रति में है।