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________________ ५०६] [प्रज्ञापना सूत्र [६६६-१ प्र.] भगवन् ! नैरयिक जीव अनन्तर (साक्षात् या सीधा) उद्वर्तन करके (निकलकर) कहाँ जाते हैं ? कहाँ उत्पन्न होते हैं ? क्या वे नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं अथवा तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं या देवों में उत्पन्न होते हैं ? [६६६-१ उ.] गौतम! (नैरयिक जीव अनन्तर उद्वर्तन करके) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं या मनुष्यों में उत्पन्न होते है; (किन्तु) देवों में उत्पन्न नहीं होते हैं। [२] जति तिरिक्खजोणिएसु उववजंति किं एगिदिय जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति ? गोयमा! नो एगिदिएसु जाव नो चउरिदिएसु उववजंति, पंचिंदिएसु उववजंति। [६६६-२ प्र.](भगवन् !) यदि (वे) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं तो क्या एकेन्द्रिय तिर्यञ्चों में उत्पन्न होते हैं, (अथवा) यावत् पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं ? [६६६-२ उ.] गौतम!(वे) न तो एकेन्द्रियों में और न ही द्वि-त्रि-चतुरिन्द्रिय जीवों में उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) पंचेन्द्रियों में उत्पन्न होते हैं। [३] एवं जेहिंतो उववाओ भणितो तेसु उव्वट्टणा वि भाणितव्वा। णवरं सम्मुच्छिमेसु णो उववति। [६६६-३] इस प्रकार जिन-जिनसे उपपात कहा गया है, उन-उनमें ही उद्वर्त्तना भी कहनी चाहिए। विशेष यह है कि वे सम्मूछिमों में उत्पन्न नहीं होते। ६६७. एवं सव्वपुढवीसु भाणितव्वं। नवरं अहेसत्तमाओ मणुस्सेसु णो उववजंति। [६६७.] इसी प्रकार समस्त (नरक-) पृथ्वियों में उद्वर्तना का कथन करना चाहिए। विशेष बात यह है कि सातवीं नरकपृथ्वी से मनुष्यों में नहीं उत्पन्न होते। ६६८.[१] असुरकुमारा णं भंते! अणंतरं उव्वट्टिता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? किं नेरइएसु उववजंति ? जाव देवेसु उववजंति ? ____ गोयमा! णो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववजंति, मणुस्सेसु उववजंति, नो देवेसु उववज्जति। [६६८-१ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार साक्षात् (अनन्तर) उद्वर्तना करके कहाँ जाते हैं? कहाँ उत्पन्न होते हैं? क्या (वे) नैरयिकों में उत्पन्न होते हैं ? (अथवा) यावत् देवों में उत्पन्न होते हैं ? [६६८-१ उ.] गौतम! (वे) नैरयिकों में उत्पन्न नहीं होते, (किन्तु) तिर्यञ्चयोनिकों में उत्पन्न होते हैं, मनुष्यों में उत्पन्न होते हैं किन्तु देवों में उत्पन्न नहीं होते। [२] जइ तिरिक्खजोणिएसु उववजंति किं एगिदिएसु जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणिएसु उववजंति ?
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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