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छठा व्युत्क्रान्तिपद ]
[५०५ की उत्पत्ति, ६. पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिकों की उत्पत्ति, ७. मनुष्यों की उत्पत्ति, ८. वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की उत्पत्ति।
निष्कर्ष-सामान्य नैरयिकों और रत्नप्रभा के नैरयिकों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच एकेन्द्रिय स्थावर, त्रिविध विकलेन्द्रिय तथा असंख्यातवर्षायुष्क चतुष्पद खेचरों तथा शेष पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों में भी अपर्याप्तकों एवं सम्मूछिम मनुष्यों तथा गर्भजों में अकर्मभूमिज और अन्तर्वीपज मनुष्यों तथा कर्मभूमिजों में जो भी असंख्यातवर्षायुष्कों तथा संख्यातवर्षायुष्कों में भी अपर्याप्तक मनुष्यों से उत्पन्न होने का निषेध किया है, शेष से उत्पत्ति का विधान है। शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में सम्मूछिमों से, वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों में भुजपरिसरों से, पंकप्रभा के नैरयिकों में खेचरों से, धूमप्रभा-नैरयिकों में चतुष्पदों से, तमःप्रभा-नैरयिकों में उर:परिसरों से तथा तमस्तमापृथ्वी के नैरयिकों में स्त्रियों से (आकर) उत्पन्न होने का निषेध है। भवनवासियों में देव, नारक, पृथ्वीकायिकादि पांच, त्रिविध विकलेन्द्रिय, अपर्याप्त तिर्यपंचेन्द्रियों तथा सम्मूछिम एवं अपर्याप्तक गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है, शेष का विधान है। पृथ्वी-जल-वनस्पतिकायिकों में सर्वनैरयिक तथा सनत्कुमारादि देवों से एवं तेजो-वायु-द्वि-त्रिचतुरिन्द्रियों में सर्व नारकों, सभी देवों से उत्पत्ति का। तिर्यक् पंचेन्द्रियों में आनतादि देवों से उत्पत्ति का निषेध है। मनुष्यों में सप्तमनरकपृथ्वी के नारकों तथा तेजोवायुकायिकों से उत्पत्ति का निषेध है। व्यन्तरदेवों में देव, नारक, पृथ्वी आदि पंचक, विकलेन्द्रियत्रिक, अपर्याप्त तिर्यच पंचेन्द्रिय तथा सम्मूच्छिम एवं अपर्याप्त गर्भज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है। ज्योतिष्कदेवों में सम्मूछिम तिर्यक् पंचेन्द्रिय, असंख्यातवर्षायुष्क खेचर तथा अन्तर्वीपज मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है। सौधर्म और ईशानकल्प के देवों में तथा सनत्कुमार से सहास्रारकल्प तक के देवों में अकर्मभूमिक मनुष्यों से भी उत्पत्ति का, आनत आदि में तिर्यञ्च पंचेन्द्रियों से, नौ ग्रैवेयकों में असंयतों तथा संयतासंयतों एवं विजयादि पंच अनुत्तरौपपातिकों में मिथ्यांदृष्टि मनुष्यों तथा प्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि मनुष्यों से उत्पत्ति का निषेध है ।
___ 'कुतोद्वार' की प्ररूपणा का उद्देश्य कौन-कौन जीव कहाँ से, अर्थात्-किन-किन भवों से उद्वर्तना (मृत्यु प्राप्त) करके नारकादि पर्यायों में (आकर) उत्पन्न होते हैं? यही प्रतिपादन करना कुतोद्वार का उद्देश्य और विशेष अर्थ है। छठा उद्वर्तनाद्वार : चातुर्गतिक जीवों के उद्वर्तनानन्तर गमन एवं उत्पाद की प्ररूपणा
६६६. [१] नेरइया णं भंते! अणंतरं उववट्टित्ता कहिं गच्छंति ? कहिं उववजंति ? किं नेरइएसु उववजंति ? तिरिक्खजोणिएसु उववजंति ? मणुस्सेसु उववजंति ? देवेसु उववजंति ?
गोयमा! णो नेरइएसु उववजंति, तिरिक्खजोणिएसु उववज्जति, मणुस्सेसु उववज्जंति, नो देवेसु उववजंति।
२.
प्रज्ञापनासूत्र मलय वृत्ति, पत्रांक २१४ प्रज्ञापना, प्रमेयबोधिनीटीका भा. २, पृ. १००७