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________________ [ प्रज्ञापना सूत्र ५०४] है कि असंयतों और संयतासंयतों से इनकी (ग्रैवेयकों की) उत्पत्ति का निषेध करना चाहिए । ६६५. [ १ ] एवं जहेव गेवेज्जगदेवा तहेव अणुत्तरोववाइया वि । णवरं इमं णाणत्तं - संजया चेव । [६६५ - १] इसी प्रकार जैसी ( वक्तव्यता) ग्रैवेयक देवों की उत्पत्ति के विषय में कही, वैसी ही उत्पत्ति (-वक्तव्यता) पांच अनुत्तर विमानों के देवों की समझनी चाहिए । विशेष यह है कि संयत ही अनुत्तरौपपातिक देवों में उत्पन्न होते हैं । [ २ ] जति संजतसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमगगब्भवक्कं तियमणुस्सेहिंतो उववज्र्ज्जति किं पमत्तसंजतसम्मद्दिट्ठिपज्जत्तएहिंतो ? अपमत्तसंजतएहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! अपमत्तसंजएहिंतो उववज्जंति, नो पमत्तसंजएहिंतो उववज्र्ज्जति । [६६५-२] (भगवन्!) यदि (वे) संयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या अप्रमत्तसंयत सम्यग्दृष्टि पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं ? [६६५-२ उ.] गौतम! (पूर्वोक्त तथारूप) अप्रमत्तसंयतों से (वे) उत्पन्न होते हैं, किन्तु (तथारूप) प्रमत्तसंयतों से उत्पन्न नहीं होते हैं । [ ३ ] जति अपमत्तसंजएहिंतो उववज्जंति किं इड्डिपत्तअपमत्तसंजएहिंतो उववज्र्ज्जति ? अणिड्ढिपत्तअपमत्तसंजतेहिंतो उववज्जंति ? गोयमा ! दोहिंतो वि उववज्जति ॥ दारं ५ ॥ [६६५-३ प्र.] (भगवन्!) यदि वे (अनुत्तरौपपातिक देव) (पूर्वोक्त विशेषणयुक्त) अप्रमत्तसंयतों से उत्पन्न होते हैं, तो क्या ऋद्धिप्राप्त - अप्रमत्तसंयतों से उत्पन्न होते हैं, (अथवा ) अनृद्धिप्राप्त अप्रमत्तसंयतों से (वे) उत्पन्न होते हैं । [६६५-३] गौतम ! (वे) उपर्युक्त दोनों (ऋद्धिप्राप्त - अप्रमत्तसंयतों तथा अनृद्धिाप्राप्त अप्रमत्तसंयतों) से भी उत्पन्न होते हैं । दार ५ । विवेचन — पंचम कुतोद्वार: नारकादि चारों गतियों के जीवों की पूर्वभवों (आगति ) से उत्पत्ति की प्ररूपणा — प्रस्तुत सत्ताईस सूत्रों में कुत: ( कहाँ से या किन-किन भावों से) द्वार के माध्यम से जीवों की उत्पत्ति के विषय में विस्तृत प्ररूपणा की गई है। किनकी उत्पत्ति, किन - किनसे ? का क्रम - इस द्वार का क्रम इस प्रकार है - १. सामान्य नारकों की उत्पत्ति किन-किनसे ?, २. रत्नप्रभादि पृथ्वियों के नारकों की उत्पत्ति, ३. असुरकुमारादि भवनवासी देवों की उत्पत्ति, ४. पृथ्वीकायिकादि पंचविध एकेन्द्रियों की उत्पत्ति, ५. त्रिविध विकलेन्द्रियों
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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