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[प्रज्ञापना सूत्र
[६५०-१७ उ.] गौतम! (वे) कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं, (किन्तु) कल्पातीत वैमानिक देवों से आकर उत्पन्न नहीं होते।
[१८] जति कप्पोवगवेमाणियदेवेहितो उववज्जति किं सोहम्मेहंतो जाव अच्चुएहितो उववज्जति।
गोयमा! सोहम्मीसाणेहिंतो उववजंति, नो सणंकुमार जाव अच्चुएहितो उववजंति।
[६५०-१८ प्र.] (भगवन् !) यदि कल्पोपपन्न वैमानिक देवों से उत्पन्न होते हैं तो क्या वे (पृथ्वीकायिक) सौधर्म (कल्प के देवों) से यावत् अच्युत(कल्प तक के) देवों से उत्पन्न होते हैं ?
[६५०-१८ उ.] गौतम ! (वे) सौधर्म और ईशान कल्प के देवों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु सनत्कुमार से लेकर अच्युत कल्प तक के देवों से उत्पन्न नहीं होते।
६५१. एवं आउक्काइया वि। [६५१] इसी प्रकार अप्कायिकों की उत्पत्ति के विषय में भी कहना चाहिए। ६५२. एवं तेउ-वाऊ वि। नवरं देववजेहिंतो उववजंति।
[६५२] इसी प्रकार तेजस्कायिकों एवं वायुकायिकों की उत्पत्ति के विषय में समझना चाहिए। विशेष यह है कि (ये दोनों) देवों को छोड़कर (दूसरों-नारकों, तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों-से) उत्पन्न होते हैं।
६५३. वणस्सइकाइया जहा पुढविकाइया।
[६५३] वनस्पतिकायिकों की उत्पत्ति के विषय में कथन, पृथ्वीकायिकों के उत्पत्ति-विषयक कथन की तरह समझना चाहिए।
६५४. बेइंदिय-तेइंदिय-चउरेंदिया एते जहा तेउ-वाऊ देववज्जेहिंतो भाणितव्वा।
[६५४] द्वीन्द्रिय, त्रीन्द्रिय और चतुरिन्द्रिय जीवों की उत्पत्ति तेजस्कायिकों और वायुकायिकों की उत्पत्ति के समान समझनी चाहिए। देवों को छोड़ कर (अन्य-नारकों, तिर्यञ्चों तथा मनुष्यों से) इनकी उत्पत्ति कहनी चाहिए।
६५५. [१] पंचेंदियतिरिक्खजोणिया णं भंते! कतोहिंतो उववजंति ? किं नेरइएहितो उववजंति ? जाव देवेहिंतो उववजंति ?
गोयमा! नेरइएहितो वि तिरिक्खजोणिएहितो वि मणूसेहितो वि देवेहितो वि उववजंति।
[६५५-१ प्र.] भगवन् ! पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चयोनिक कहाँ से (आकर) उत्पन्न होते हैं? क्या वे नारकों से उत्पन्न होते हैं, यावत् देवों से उत्पन्न होते हैं ?
[६५५-१ उ.] गौतम! (वे) नैरयिकों से भी उत्पन्न होते हैं, तिर्यञ्चयोनिकों से भी, मनुष्यों से भी और देवों से भी उत्पन्न होते हैं।