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छठा व्युत्क्रान्तिपद ]
[२६] जति संखेन्जवासाउयकम्मभूमगगब्भक्कंतियमणूसेहिंतो उववजंति किं पन्जत्तरोहितो उववजंति ? अपज्जत्तगेहिंतो उववजंति ?
गोयमा! पन्जत्तएहिंतो उववजंति, नो अपज्जत्तएहितो उववति ।
[६३९-२६ प्र.] (भगवन् !) यदि (वे) संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं तो क्या पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं या अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं। __ [६३९-२६ उ.] गौतम! पर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज मनुष्यों से उत्पन्न होते हैं, किन्तु अपर्याप्तक संख्यातवर्षायुष्क कर्मभूमिज गर्भज मनुष्यों से उत्पन्न नहीं होते।
६४०. एवं जहा ओहिया उववइया तहा रयणप्पभापुढविनेरइया वि उववाएयव्वा।
[६४०] इसी प्रकार जैसे औधिक (सामान्य) नारकों के उपपात (उत्पत्ति) के विषय में कहा गया है, वैसे ही रत्नप्रभापृथ्वी के नैरयिकों के उपपात के विषय में कहना चाहिए।
६४१. सक्करप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा। गोयमा! एते वि जहा ओहिया तहेवोववएयव्वा। नवरं सम्मुच्छिमेहितो पडिसेहो कातव्वो। [६४१ प्र.] शर्करापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में पृच्छा।
[६४१उ.] गौतम! शर्करापृथ्वी के नारकों का उपपात भी औधिक (सामान्य) नैरयिकों के उपपात की तरह ही समझना चाहिए। विशेष यह है कि सम्मूछिमों से (इनकी उत्पत्ति) का निषेध करना चाहिए।
६४२. वालुयप्पभापुढविनेरइया णं भंते। कतोहिंतो उववनंति ? . गोयमा! जहा सक्करप्पभापुढविनेरइया। नवरं भुयपरिसप्पेहितो वि पडिसेहो कातव्वो। [६४२ प्र.] भगवन् ! वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ?
[६४२उ.] गौतम! जैसे शर्कराप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए।! विशेष यह है कि भुजपरिसर्प (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्च) से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए।
६४३. पंकप्पभापुढविनेरइयाणं पुच्छा। गोयमा! जहा वालुयप्पभापुढविनेरइया। नवरं खहयरहितो वि पडिसेहो कातव्यो। [६४३ प्र.] भगवन् ! पंकप्रभापृथ्वी के नैरयिक कहाँ से उत्पन्न होते हैं ?
[६४३ उ.] गौतम! जैसे वालुकाप्रभापृथ्वी के नैरयिकों की उत्पत्ति के विषय में कहा, वैसे ही इनकी उत्पत्ति के विषय में कहना चाहिए। विशेष यह है कि खेचर (पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों) से (इनकी उत्पत्ति का) निषेध करना चाहिए।