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[ प्रज्ञापना सूत्र
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[ ६३७ प्र.] भगवन् ! नैरयिक एक समय में कितने उद्वर्त्तित होते ( मर कर निकलते ) हैं ? [६३७ उ.] गौतम! (वे) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात उद्वर्त्तित होते ( मरते ) हैं ।
६३८. एवं जहा उववाओ भणितो तहा उव्वट्टणा वि सिद्धवज्जा भाणितव्वा जाव अणुत्तरोववाइया । णवरं जोइसिय-वेमाणियाणं चयणेणं अभिलावो कातव्वो ॥ दारं ४ ॥
[ ६३८] इसी प्रकार जैसे उपपात के विषय में कहा, उसी प्रकार सिद्धों को छोड़ कर अनुत्तरौपपातिक देवों की उद्वर्तना के विषय में कहना चाहिए । विशेष यह है कि ज्योतिष्क और वैमानिक देवों के लिए ( उद्वर्त्तना के बदले ) 'च्यवन' शब्द का प्रयोग ( अभिलाप) करना चाहिए ।
- चतुर्थ एकसमयद्वार ॥ ४॥
विवेचन - चतुर्थ एक समय-द्वार: चौबीस दण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति तथा उद्वर्त्तना की संख्या की प्ररूपणा - प्रस्तुत तेरह सूत्रों (सू. ६२६ से ६३८ तक) में एक समय में समस्त संसारी जीवों की उत्पत्ति एवं उद्वर्त्तना तथा सिद्धों की सिद्धप्राप्ति की संख्या के सम्बन्ध में प्ररूपणा की गई है ।
वनस्पतिकायिकों के स्वस्थान- उपपात एवं परस्थान - उपपात की व्याख्या - यहाँ स्वस्थान का अर्थ 'वनस्पतिभव' समझना चाहिए। जो वनस्पतिकायिक जीव मर कर पुनः वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होते हैं, उनका उत्पाद स्वस्थान में उत्पाद कहलाता है और जब पृथ्वीकाय आदि किसी अन्य काय का जीव वनस्पतिकाय में उत्पन्न होता है, तब उसका उत्पाद परस्थान - उत्पाद कहलाता है । स्वस्थान में उत्पत्ति की अपेक्षा प्रत्येक समय में निरन्तर अनन्त वनस्पतिकायिक जीव उत्पन्न होते रहते हैं; क्योंकि प्रत्येक निगोद में असंख्यातभाग का निरन्तर उत्पाद और उद्वर्त्तन होता रहता है, और वे वनस्पतिकायिक अनन्त होते हैं । परस्थान - उत्पाद की अपेक्षा से प्रतिसमय निरन्तर असंख्यात जीवों का उपपात होता रहता है, क्योंकि पृथ्वीकाय आदि के जीव असंख्यात हैं । तात्पर्य यह है कि एक समय में वनस्पतिकाय से मर कर वनस्पतिकाय में ही उत्पन्न होने वाले जीव अनन्त होते हैं एवं अन्य कार्यों से मर कर वनस्पतिकाय में उत्पन्न होने वाले असंख्यात हैं ।
गर्भज मनुष्य तथा आनतादि का एक समय में संख्यात ही उत्पाद क्यों ? आनतादि देवलोकों में मनुष्य उत्पन्न होते हैं, जो कि संख्यात ही हैं । तिर्यंच उनमें नहीं उत्पन्न होते ।
पंचम कुतोद्वार : चातुर्गतिक जीवों की पूर्वभवों से उत्पत्ति (आगति) की प्ररूपणा
६३९. [ १ ] नेरइया णं भंते! कतोहिंतो उववज्जंति ? किं नेरइएहिंतो उववज्र्ज्जति ? तिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्र्ज्जति ? मणुस्सेहिंतो उववज्जंति ? देवेहिंतो उववज्जंति ?
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र म. वृत्ति, पत्रांक २०८, २०९ (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका भा. २, पृ. ९९२