SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 582
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ छठा व्युत्क्रान्तिपद ] [४८१ गोयमा! सट्ठाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया अणंत उववजंति ? परट्ठाणुववायं पडुच्च अणुसमयं अविरहिया असंखेजा उववजंति । [६३२ प्र.] भगवन् ! वनस्पतिकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [६३२ उ.] गौतम! स्वस्थान (वनस्पतिकाय) में उपपात (उत्पत्ति) की अपेक्षा से प्रतिसमय विना विरह के अनन्त (वनस्पतजीव) उत्पन्न होते रहते हैं तथा परस्थान में उपपात की अपेक्षा से प्रतिसमय विना विरह के असंख्यात (वनस्पतिजीव) उत्पन्न होते हैं। ६३३. बेइंदिया णं भंते! केवतिया एगसमएणं उववजंति ? । गोयमा! जहण्णेणं एगो वा दो वा तिणि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा। [६३३ प्र.] भगवन् ! द्वीन्द्रिय जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [६३३ उ.] गौतम! (वे) जघन्य एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्ट संख्यात या असंख्यात (उत्पन्न होते हैं।) ६३४. एवं तेइंदिया चउरिदिया सम्मुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणिया गब्भवक्कंतियपंचेदियतिरिक्खजोणिया सम्मुच्छिममणूसा वाणमंतर-जोइसिय-सोहम्मीसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभलोयलंगत-सुक्क-सहस्सारकप्पदेवा, एते जहा नेरइया। __ [६३४] इसी प्रकार त्रीन्द्रिय, चतुरिन्द्रिय, सम्मूछिम पंचेन्द्रिय तिर्यग्योनिक, गर्भज पंचेन्द्रिय, तिर्यग्योनिक, सम्मूछिम मनुष्य, वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क, सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, शुक्र एवं सहस्रार कल्प के देव, इन सब की प्ररूण्णा नैरयिकों के समान समझनी चाहिए। ६३५. गब्भवक्कंतियमणूस-आणय-पाणय-आरण-अच्चुय-गेवेज्जग-अणुत्तरोववाइया य एते जहणणेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा उववजंति। __ [६३५.] गर्भज मनुष्य आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, (नौ) ग्रैवेयक, (पांच) अनुत्तरौपातिक देव; ये सब जघन्यतः एक, दो अथवा तीन तथा उत्कृष्टतः संख्यात उत्पन्न होते हैं। ६३६. सिद्धा णं भंते! एगसमएणं केवतिया सिझंति ? गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं अट्ठसतं। [६३६ प्र.] भगवन् ! सिद्ध भगवन् एक समय में कितने सिद्ध होते हैं ? [६३६. उ.] गौतम! (वे) जघन्यतः एक, दो, अथवा तीन और उत्कृष्टतः एक सौ आठ' सिद्ध होते हैं। ६३७. नेरइया णं भंते! एगसमएणं केवतिया उव्वटंति ? गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा उव्वटंति।
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy