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[प्रज्ञापना सूत्र सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति की व्याख्या- बीच-बीच में कुछ समय छोड़कर व्यवधान से उत्पन्न होना सान्तर उत्पन्न होना है और प्रतिसमय लगातार----विना व्यवधान के उत्पन्न होना, बीच में कोई भी समय खाली न जाना निरन्तर उत्पन्न होना है। चतुर्थ एकसमयद्वार : चौबीसदण्डकवर्ती जीवों और सिद्धों की एक समय में उत्पत्ति और उद्वर्तना की संख्या की प्ररूपणा -
६२६. नेरइया णं भंते! एगसमएणं केवतिया उववजंति ?
गोयमा! जहण्णेणं एगो वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा उववज्जति।
[६२६ प्र.] भगवन् ! एक समय में कितने नैरयिक उत्पन्न होते हैं ?
[६२६ उ.] गौतम! जघन्य (कम से कम) एक, दो या तीन उत्कृष्ट (अधिक से अधिक) संख्यात अथवा असंख्यात उत्पन्न होते हैं।
६२७. एवं जाव अहेसत्तमाए। [६२७] इसी प्रकार सातवीं नरकपृथ्वी तक समझ लेना चाहिए। । ६२८. असुरकुमारा णं भंते! एगसमएणं केवतिया उववजंति ? - गोयमा! जहण्णेणं एक्को वा दो वा तिण्णि वा, उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेजा वा। [६२८ प्र.] भगवन् ! असुरकुमार एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? ...[६२८. उ.] गौतम! (वे) जघन्य एक, दो या तीन और उत्कृष्ट संख्यात अथवा असंख्यात (उत्पन्न होते हैं।)
६२९. एवं णागकुमारा जाव थणियकुमारा वि भाणियव्वा। [६२९] इसी प्रकार नागकुमार से लेकर स्तनितकुमार तक कहना चाहिए। ६३०. पुढविकाइया णं भंते! एगसमएणं केवतिया उववजंति ? गोयमा! अणुसमयं अविरहियं असंखेजा उववजंति। [६३० प्र.] भगवन्! पृथ्वीकायिक जीव एक समय में कितने उत्पन्न होते हैं ? [६३० उ.] गौतम! (वे) प्रतिसमय विना विरह (अन्तर) के असंख्यात उत्पन्न होते हैं। ६३१. एवं जाव वाउकाइया। [६३१] इसी प्रकार वायुकायिक जीवों तक कहना चाहिए। ६३२. वणप्फतिकाइया णं भंते! एगसमएणं केवतिया उववजंति ?
१. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक २०८
(1) प्रज्ञापना प्र. बो. टीका भा. २, पृ. ९७६-९७७