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छठा व्युत्क्रान्तिपद ] _[६२१ उ.] गौतम! (वे) सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं।
६२२. एवं वाणमंतरा जोइसिया सोहम्म-ईसाण-सणंकुमार-माहिंद-बंभलोय-लंतगमहासुक्कसहस्सार-आणय-पाणय-आरण-ऽच्चुय-हेट्ठिमगेवेज्जग-मज्झिमगेवेज्जग-उवरिमगेवेज्जगविजय-वेजयंत-जयंत-अपराजित-सव्वट्ठसिद्धदेवा य संतरं पि उववजंति, निरंतरं पि उववजंति।
[६२२] इसी प्रकार वाणव्यन्तर, ज्योतिष्क तथा सौधर्म, ईशान, सनत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्मलोक, लान्तक, महाशुक्र, सहस्रार, आनत, प्राणत, आरण, अच्युत, अधस्तन ग्रैवेयक, मध्यम ग्रैवेयक, उपरितन ग्रैवयक, विजय, वैजयन्त, जयन्त, अपराजित और सर्वार्थसिद्ध देव सान्तर भी उत्पन्न होते हैं और निरन्तर भी उत्पन्न होते हैं।
६२३. सिद्धा णं भंते! किं संतरं सिझंति ? निरंतरं सिझंति ? गोयमा! संतरं पि सिझंति, निरंतरं पि सिझंति। [६२३ प्र.] भगवन् ! सिद्ध क्या सान्तर सिद्ध होते हैं अथवा निरन्तर सिद्ध होते हैं ? [६२३ उ.] गौतम! (वे) सान्तर भी सिद्ध होते हैं, निरन्तर भी सिद्ध होते हैं। ६२४. नेरइया णं भंते! किं संतरं उव्वटंति ? निरंतरं उव्वटंति ? गोयमा! संतरं पि उव्वटंति, निरंतरं पि उव्वटंति। [६२४. प्र.] भगवन् ! नैरयिक सान्तर उद्वर्तन करते हैं अथवा निरन्तर उद्वर्तन करते हैं ? [६२४. उ.] गौतम! वे सान्तर भी उद्वर्तन करते हैं और निरन्तर भी उद्वर्तन करते हैं।
६२५. एवं जहा उववाओ भणितो तहा उव्वट्टणा वि सिद्धवज्जा भाणितव्वा जाव वेमाणिया। नवरं जोइसिय-वेमाणिएसु चवणं ति अभिलावो कातव्वो। दारं ३॥
[६२५] इस प्रकार जैसे उपपात (के विषय में) कहा गया है, वैसे ही सिद्धों को छोड़कर उद्वर्तना (के विषय में) भी यावत् वैमानिकों तक कहना चाहिए। विशेष यह है कि ज्योतिष्कों और वैमानिकों के लिए 'च्यवन' शब्द का प्रयोग (अभिलाप) करना चाहिए। तृतीय सान्तर द्वार ॥ ३॥
विवेचन–तीसरा सान्तरद्वार-नैरयिकों से लेकर सिद्धों की उत्पत्ति और उद्वर्तना का सान्तरनिरन्तरनिरूपण-प्रस्तुत १७ सूत्रों (सू ६०९ से ६२४ तक) में नैरयिक से लेकर वैमानिक देव पर्यन्त चौबीस दण्डकों और सिद्धों की सान्तर और निरन्तर उत्पत्ति एवं उद्वर्तना की प्ररूपणा की गई है।
निष्कर्ष- पृथ्वीकायिक से लेकर वनस्पतिकायिक तक पांच प्रकार के एकेन्द्रियों को छोड़ कर समस्त संसारी एवं सिद्ध जीवों की सान्तर और निरन्तर दोनों प्रकार से उत्पत्ति और उद्वर्तना होती है। किन्तु सिद्धों की उत्पत्ति भी सान्तर-निरन्तर होती है, किन्तु उद्वर्तना कभी नहीं होती। १. पण्णवणासुत्तं (मूलपाठ) भाग १, पृ. १६६ से १६८ तक