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प्रज्ञापना सूत्र
मात्रा जिसमें पाई जाती है, वह पुद्गल जघन्यगुण काला कहलाता है । यहाँ गुणशब्द अंश या मात्रा के अर्थ में प्रयुक्त है । जघन्यगुण का अर्थ है - सबसे कम अंश । दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जिस पुद्गल में केवल एक डिग्री का कालापन हो, जिससे कम कालापन का सम्भव ही न हो, वह जघन्यगुण काला समझना चाहिए। जिसमें कालेपन के सबसे अधिक अंश पाए जाएँ, वह उत्कृष्टगुण काला है। एक अंश कालेपन से अधिक और सबसे अधिक (अन्तिम) कालेपन से एक अंश कम तक का काला मध्यमगुणकाला कहलाता है। कृष्णवर्ण की तरह ही जघन्य - उत्कृष्ट - मध्यमगुणयुक्त नीलादि वर्णों, तथा गन्धों, रसों एवं स्पर्शो के विषय में समझना चाहिए ।'
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अवगाहना की अपेक्षा से द्विप्रदेशी स्कन्ध की हीनधिकता — एक द्विप्रदेशी स्कन्ध दूसरे द्विप्रदेशी स्कन्ध से अवगाहना की अपेक्षा से यदि हीन हो तो एक-एक प्रदेश कम अवगाहना वाला हो सकता है और यदि अधिक हो तो एक प्रदेश अधिक अबर अवगाहना वाला हो सकता है। तात्पर्य यह है कि द्विप्रदेशी स्कन्ध की अवगाहना में एक प्रदेश से अधिक न्यूनाधिक अवगाहना का सम्भव नहीं है। द्विप्रदेशी स्कन्ध से दशप्रदेशी स्कन्ध तक उत्तरोत्तर प्रदेशवृद्धि इनकी पर्याय - वक्तव्यता द्विप्रदेशी, स्कन्ध के समान है, किन्तु उनमें उत्तरोत्तर प्रदेशों की वृद्धि करनी चाहिए । अर्थात दशप्रदेशी स्कन्ध तक क्रमशः नौ प्रदेशों की वृद्धि कहनी चाहिए।
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जघन्यगुण कृष्ण संख्यातप्रदेशी स्कन्ध प्रदेश श एवं अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतित प्रदेशों की अपेक्षा से वह द्विस्थानपतित होता है; अर्थात्- संख्याभागहीन, अथबा संख्यातगुणहीन या संख्यातभाग-अधिक अथवा संख्यातगुण-अधिक होता है। इसी प्रकार अवगाहना की दृष्टि से द्विस्थानपतित है । २
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"परस्पर विरोधी गन्ध, रस और स्पर्श का परमाणुपुद्गल में अभाव परमाणुपुद्गल में सुरभिगन्ध होती है, उनमें दुरभिगन्ध नहीं होती, और और जिसमें दुरभिगन्ध होती है, उसमें सुरभिगन्ध नहीं होती, क्योंकि परमाणु एक अन्य वाला ही होता है। इसलिए जिस गन्ध का कथन किया जाए, वहां दूसरी गन्ध का अभाव कहना चाहिए। इसी प्रकार जहाँ एक रस का कथन हो, वहाँ दूसरे रसों का अभाव समझना चाहिए। अर्थात्— जहाँ तिक्त रस हो, वहाँ शेष कटु रस नहीं होते; क्योंकि उनमें का कथन हो, वहाँ उष्णस्पर्श का कथन परस्पर विरोध है। इसी प्रकार जहाँ पुद्गल परमाणु में शीतस्पर्श का नहीं करना चाहिए, क्योंकि ये दोनों स्पर्श विरोधी हैं। इसी प्रकार अन्यान्य स्पर्शो के बारे में समझ लेना
चाहिए। जैसे— स्निग्ध और रूक्ष, मृदु और कर्कश, लघु marathimati
गुरु परस्पर विरोधी स्पर्श हैं। एक ही परमाणु में ये परस्पर विरोधी स्पर्श भी नहीं रहते । अतएव परमाणु में इनका उल्लेख नहीं करना चाहिए।
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२.
प्रज्ञापनासूत्र प्रमेयबोधिनी टीका भा. २.पू. ८८५-८८६ प्रज्ञापनासूत्र प्र. बी. टीका, भा. २, पृ.८८७ से ८९० प्रज्ञापनासूत्र प्र. बों. टीका भो. २, पृ. ८९५