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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
५०३. ते णं भंते! कि संखेज्जा असंखेजा अणंता ? गोयमा! नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता । से केणट्टेणं भंते! एवं वुच्चति नो संखेन्जा, नो असंखेज्जा, अणंता ?
गोयमा। अणंता परमाणुपोग्गला अणंता, दुपदेसिया खंधा जाव अणंता दसपदेसिया खंधा, अणंता संखेन्जपदेसिया खंधा, अणंता असंखेज्जपदेसिया खंधा, अणंता अणंतपदेसिया खंधा, से तेणट्टेणं गोयमा! एवं वुच्चति ते णं नो संखेज्जा, नो असंखेज्जा, अणंता।
[५०३ प्र.] भगवन् ! क्या वे (पूर्वोक्त रूपीअजीवपर्याय-चतुष्टय) संख्यात हैं, असंख्यात हैं, अथवा अनन्त हैं ?
[५०३ उ.] गौतम! वे संख्यात नहीं असंख्यात नहीं (किन्तु) अनन्त हैं।
[प्र.] भगवन् ! किस हेतु से आप ऐसा कहते हैं कि वे (पूर्वोक्त चतुर्विध रूपी अजीवपर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, (किन्तु) अनन्त हैं?
[उ.] गौतम! परमाणु-पुद्गल अनन्त हैं; द्विप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, यावत् दशप्रदेशिक-स्कन्ध हैं, संख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, असंख्यातप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं, और अनन्तप्रदेशिक स्कन्ध अनन्त हैं। हे गौतम! इस कारण से ऐसा कहा जाता है कि वे न संख्यात हैं, न ही असंख्यात हैं किन्तु अनन्त हैं। ___ विवेचन –अजीवपर्याय के भेद-प्रभेद और पर्यायसंख्या प्रस्तुत चार सूत्रों (सू. ५०० से ५०३ तक) में अजीवपर्याय, उसके मुख्य दो प्रकार, तथा अरूपी और रूपी अजीव-पर्याय के भेद एवं रूपी अजीवपर्यायों की संख्या का निरूपण किया गया है। ___ रूपी और अरूपी अजीवपर्याय की परिभाषा–रूपी जिसमें रूप हो, उसे रूपी कहते हैं। यहाँ 'रूप' शब्द से रूप' के अतिरिक्त 'गन्ध' , रस और स्पर्श का भी उपलक्षण से ग्रहण किया जाता है। आशय यह है कि जिसमें रूप, रस, गन्ध और स्पर्श हो, वह रूपी कहलाता है। रूपयुक्त अजीव को रूपी अजीव कहते हैं। रूपी अजीव पुद्गल ही होता है, इसलिए रूपी अजीव के पर्याय का अर्थ हुआ—पुद्गल के पर्याय । अरूपी का अर्थ है जिसमें रूप (रस, गन्ध और स्पर्श) का अभाव हो, जो अमूर्त हो। अतः अरूपी अजीव-पर्याय का अर्थ हुआ—अमूर्त अजीव के पर्याय।
धर्मास्तिकायादि की व्याख्या धर्मास्तिकाय धर्मास्तिकाय का असंख्यातप्रदेशों का सम्पूर्ण (अखण्डित) पिण्ड (अवयवी द्रव्य)। धर्मास्तिकायदेश-धर्मास्तिकाय का अर्द्ध आदि भाग। धर्मास्तिकायप्रदेश-धर्मास्तिकाय के निरंकश (सूक्ष्मतम) अंश। इसी प्रकार अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय आदि के त्रिकों को समझ लेना चाहिए। अद्धासमय अप्रदेशी कालद्रव्य। १. प्रज्ञापना मलय. वृत्ति, पत्रांक २०२