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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[४२७ मध्यम आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य स्वस्थान में षट्स्थानपतित— जैसे एक उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी मनुष्य, दूसरे उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी से तुल्य होता है, वैसे मध्यम आभिनिबोधिकज्ञानी मध्यम आभिनिबोधिकज्ञानी के तुल्य ही हो, ऐसा नियम नहीं है। इसलिए उनमें स्वस्थान में षट्स्थानपतित हीनाधिकता सम्भव है।
जघन्य और उत्कृष्ट अवधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित क्यों ? - मनुष्यों में सर्वजधन्य अवधिज्ञान पारभविक (पूर्वभय से साथ आया हुआ) नहीं होता, किन्तु वह तद्भव (उसी भव) सम्बन्धी होता है और वह भी पर्याप्त-अवस्था में, अपर्याप्त अवस्था में उसके योग्य विशुद्धि नहीं होती तथा उत्कृष्ट अवधिज्ञान भाव से चारित्रवान् मनुष्य को होता है। इस कारण जघन्यावधिज्ञानी और उत्कृष्टावधिज्ञानी मनुष्य अवगाहना की अपेक्षा त्रिस्थानपतित ही होते हैं, किन्तु मध्यम अवधिज्ञानी चतु:स्थानपतित होता है, क्योंकि मध्यम अवधिज्ञान पारभविक भी हो सकता है, अतएव अपर्याप्त अवस्था में भी सम्भव है।
स्थिति की अपेक्षा से जघन्यादियुक्त मनुष्य त्रिस्थानपतित क्यों ?—अवधिज्ञान असंख्यातवर्ष की आयु वाले मनुष्यों में सम्भव नहीं, वह संख्यातवर्ष की आयु वालों को ही होता है। अतः जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों में संख्यातवर्ष की आयु की दृष्टि से त्रिस्थानपतित हीनाधिकता ही हो सकती है, चतु:स्थानपतित नहीं।
जघन्यादियुक्त मनःपर्यवज्ञानी स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित-मन:पर्यायज्ञान चारित्रवान् मनुष्यों को ही होता है, और चारित्रवान् मनुष्य संख्यातवर्ष की आयुवाले ही होते हैं। अत: जघन्य, मध्यम और उत्कृष्ट मनःपर्यायज्ञानी मानव स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित ही होते हैं।
केवलज्ञानी मनुष्य अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित क्यों और कैसे ?—यह कथन केवलीसमुद्घात की अपेक्षा से है, क्योंकि केवलीसमुद्घात करता हुआ केवलज्ञानी मनुष्य, अन्य केवली मनुष्यों की अपेक्षा असंख्यातगुणी अधिक अवगाहना वाला होता है और उसकी अपेक्षा अन्य केवली असंख्यातगुणहीन अवगाहना वाले होते हैं । अतः अवगाहना की दृष्टि से केवलज्ञानी मनुष्य चतुःस्थानपतित होते हैं।
स्थिति की अपेक्षा केवलीमनुष्य त्रिस्थानपतित—सभी केवली संख्यातवर्ष की आयुवाले ही होते हैं, अतएव उनमें चतु:स्थानपतित हीनाधिकता संभव नहीं है। इस कारण वे त्रिस्थानपतित हीनाधिक हैं। वाणव्यन्तर ज्योतिष्क और वैमानिक देवों की पर्याय-प्ररूपणा
४९९. [१] वाणमंतरा जहा असुरकुमारा। १. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १९४-१९५-१९६ (ख) प्रज्ञापना. प्र. बो. टीका, भा-२, पृ. ७६०-७७० २. (क) प्रज्ञापना. म. वृत्ति, पत्रांक १९६, (ख) प्रज्ञापना प्र. बोध. टीका भा-२, पृ. ७७२