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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[४२५ है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, एवं केवलज्ञान के पर्यायों और केवलदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है।
४९८. एवं केवलदंसणी वि मणूसे भाणियव्वे।
[४९८] (जैसे केवलज्ञानी मनुष्यों के पर्याय के विषय में कहा गया,) वैसे ही केवलदर्शनी मनुष्यों के (पर्यायों के) विषय में कहना चाहिए।
विवेचन—मनुष्यों के पर्यायों की विभिन्न अपेक्षाओं से प्ररूपणा–प्रस्तुत दस सूत्रों (सू. ४८९ से ४९८ तक) में जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम अवगाहना, स्थिति, वर्णादि तथा ज्ञान आदि वाले मनुष्य के पर्यायों की विविध अपेक्षाओं से प्ररूपणा की गई है।
जघन्य-अवगाहनायुक्त मनुष्य स्थिति की दृष्टि से त्रिस्थानपतित—जघन्य अवगाहना वाला मनुष्य नियम से संख्यातवर्ष की आयु वाला ही होता है, इस दृष्टि से वह त्रिस्थानपतित हीनाधिक ही होता है, अर्थात् वह असंख्यात-संख्यातभाग एवं संख्यातगुण हीनाधिक ही होता है।
जघन्य-अवगाहनायुक्त मनुष्यों में तीन ज्ञानों और दो अज्ञानों की प्ररूपणा—किसी तीर्थकर का अथवा अनुत्तरौपपातिक देव का अप्रतिपाती अवधिज्ञान के साथ जघन्य अवगाहना में उत्पाद होता है, तब जघन्य अवगाहना में भी अवधिज्ञान पाया जाता है। अतएवं यहाँ तीन ज्ञानों का कथन किया गया है, किन्तु नरक से निकले हुए जीव का जघन्य अवगाहना में उत्पाद नहीं होता, क्योंकि उसका स्वभाव ही ऐसा है। इसलिए जघन्य अवगाहना में विभंगज्ञान नहीं पाया जाता; इस कारण यहाँ (मूलपाठ में) दो अज्ञानों की ही प्ररूपणा की गई है।
उत्कृष्ट अवगाहनावाले मनुष्य की स्थिति की दृष्टि से हीनाधिक-तुल्यता–उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों की अवगाहना तीन गव्यूति (कोस) की होती है और उनकी स्थिति होती है-जघन्य पल्योपम के असंख्यातवें भाग कम तीन पल्योपम की और उत्कृष्ट पूरे तीन पल्योपम की। तीन पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग, तीन पल्योपमों का असंख्यातवाँ ही भाग है। अतएव पल्योपम का असंख्यातवाँ भाग कम तीन पल्योपम वाला मनुष्य, तीन पल्योपम की स्थिति वाले मनुष्य से असंख्यात भाग हीन होता है
और पूर्ण तीन पल्योपम वाला मनुष्य उससे असंख्यातभाग अधिक स्थिति वाला होता है। इनमें अन्य किसी प्रकार की हीनता या अधिकता सम्भव नहीं है। इस प्रकार के किन्हीं दो मनुष्यों में कदाचित् स्थिति की तुल्यता भी होती है।
___ उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों में दो ज्ञान और दो अज्ञान की प्ररूपणा उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्यों में मति और श्रुत, ये दो ही ज्ञान अथवा मत्यज्ञान और श्रुताज्ञान, ये दो ही अज्ञान और दो ही दर्शन पाये जाते हैं। इसका कारण यह है कि उत्कृष्ट अवगाहना वाले मनुष्य असंख्यातवर्ष की आयु वाले होते हैं, और असंख्यातवर्ष की आयुवाले मनुष्य में न तो अवधिज्ञान ही हो सकता है और न ही विभंगज्ञान, क्योंकि उनका स्वभाव ही ऐसा है।