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________________ ४२४] [प्रज्ञापना सूत्र [४९५-३] इसी प्रकार मध्यम अवधिज्ञानी मनुष्यों के पर्यायों के विषय में भी कहना चाहिए। विशेष यह है कि पाठान्तर की अपेक्षा से-'अवगाहना' की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्वस्थान में वह षट्स्थानपतित (हीनाधिक) है। ४९६. जहा ओहिणाणी तहा मणपज्जवणाणी वि भाणितव्वे। नवरं ओगाहणट्ठयाए तिट्ठाणवडिए। जहा आभिणिबोहियणाणी तहा मतिअण्णाणी सुतअण्णाणी य भाणितव्वे। जहा ओहिणाणी तहा विभंगणाणी वि भाणियव्वे। चक्खुदंसणी अचक्खुदंसणी य जहा आभिणिबोहियणाणी। ओहिदंसणी जहा ओहिणाणी। जत्थ णाणा तत्थ अण्णाणा णत्धि, जत्थ अण्णाणा तत्थ णाणा णत्थि, जत्थ दंसणा तत्थ णाणा वि अण्माणा वि। [४९६] जैसा (जघन्य-उत्कृष्ट-मध्यम) अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में कहा, वैसा ही (जघन्यादियुक्त) मनःपर्यायज्ञानी (मनुष्यों) के (पर्यायों के) विषय में कहना चाहिए। विशेषता यह है कि अवगाहना की अपेक्षा से (वह) त्रिस्थानपतित है। जैसा (जघन्यादियुक्त) आभिनिबोधिक ज्ञानियों के पर्यायों के विषय में कहा है, वैसा ही मति-अज्ञानी और श्रुत-अज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के विषय में (कहना चाहिए) जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) अवधिज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन किया है, उसी प्रकार विभंगज्ञानी (मनुष्यों) का (पर्याय-विषयक) कथन करना चाहिए। चक्षुदर्शनी और अचक्षुदर्शनी (मनुष्यों) का (पर्यायविषयक) कथन आभिनिबोधिकज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायों) के समान है। अवधिदर्शनी का (पर्यायविषयक) कथन अवधिज्ञानी (मनुष्यों के पर्यायविषयक कथन) के समान है। जहाँ ज्ञान होते हैं, वहाँ अज्ञान नहीं होते' जहाँ अज्ञान होते हैं, वहां ज्ञान नहीं होते और जहाँ दर्शन हैं, वहाँ ज्ञान एवं अज्ञान दोनों में से कोई भी संभव है। ४९७. केवलणाणीणं भंते! मणुस्साणं केवतिया पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता। से केणढेणं भंते! एवं वुच्चइ केवलणाणीणं मणुस्साणं अणंता पज्जवा पण्णत्ता ? गोयमा! केवलनाणी मणूसे केवलणाणिस्स मणूसस्स दव्वट्ठयाए तुल्ले, पदेसट्ठयाए तुल्ले, ओगाहणट्ठयाए चउट्ठाणवडिते, ठितीए तिट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, केवलणाणपज्जवेहिं केवलदसणपज्जवेहिं य तुल्ले। [४९७ प्र.] भगवन्! केवलज्ञानी मनुष्यों के कितने पर्याय कहे गए हैं ? [४९७ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं। [प्र.] भगवन् ! किस कारण से ऐसा कहते हैं कि 'केवलज्ञानी मनुष्यों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?' _[उ.] गौतम! एक केवलज्ञानी मनुष्य, दूसरे केवलज्ञानी मनुष्य से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा से तुल्य है, अवगाहना की दृष्टि से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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