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[प्रज्ञापना सूत्र चउट्ठाणवडिते, वण्ण-गंध-रस-फासपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, आभिणिबोहियणाणपज्जवेहिं तुल्ले, सुयणाणपज्जवेहिं छट्ठाणवडिते, चक्खुदंसणपज्जवेहिं अचक्खुदंसणपज्जवेहि य छट्ठाणवडिते।
[४८५-१ प्र.] भगवन् ! जघन्य आभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यंचयोनिक जीवों के कितने पर्याय कहे गए हैं ?
[४८५-१ उ.] गौतम! (उनके) अनन्त पर्याय कहे हैं।
[प्र.] भगवन् ! ऐसा किस कारण से कहते हैं कि 'जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्चों के अनन्त पर्याय कहे हैं ?'
[उ.] गौतम! एक जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च, दूसरे जघन्य आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रियतिर्यञ्च से द्रव्य की अपेक्षा से तुल्य है, प्रदेशों की अपेक्षा तुल्य है, अवगाहना की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित है, तथा वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, आभिनिबोधिक ज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से तुल्य है, श्रुतज्ञान के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है, तथा चक्षुदर्शन और अचक्षुदर्शन के पर्यायों की अपेक्षा से षट्स्थानपतित है।
_[२] एवं उक्कोसाभिणिबोहियणाणी वि। णवरं ठितीए तिट्ठाणवडिते, तिण्णि णाणा, तिण्णि दंसणा, सठ्ठाणे तुल्ले, सेसेसु छट्ठाणवडिते।
[४८५-२] इसी प्रकार उत्कृष्ट आभिनिबोधिक ज्ञानी पंचेन्द्रिय-तिर्यंचों का पर्यायविषयक कंथन करना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से त्रिस्थानपतित हैं, तीन ज्ञान, तीन दर्शन तथा स्वस्थान में तुल्य हैं, शेष सब में षट्स्थानपतित (हीनाधिक) हैं।
[३] अजहण्णुक्कोसाभिणिबोहियणाणी जहा उक्कोसाभिणिबोहियणाणी। णवरं ठितीए चउट्ठाणवडिते, सट्ठाणे छट्ठाणवडिते।
[४८५-३] मध्यम आभिनिबोधिक ज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्द्रियों का पर्यायविषयक कथन, उत्कृष्ट आभिनिबोधिकज्ञानी पंचेन्द्रिय तिर्यञ्चों की तरह समझना चाहिए। विशेष यह है कि स्थिति की अपेक्षा से चतुःस्थानपतित हैं; तथा स्वस्थान में षट्स्थानपतित हैं।
४८६. एवं सुतणाणी वि।
[४८६] जिस प्रकार (जघन्यादिविशिष्ट) आभिनिबोधिक ज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कहा है, उसी प्रकार (जघन्यादियुक्त) श्रुतज्ञानी तिर्यञ्चपंचेन्द्रिय के पर्यायों के विषय में कहना चाहिए।
४८७. जहण्णोहिणाणीणं भंते ! पंचेंदियतिरिक्खजोणियाणं पुच्छा। गोयमा! अणंता पज्जवा पण्णत्ता।