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ज्ञात कूरु, बुम्बु, नाल, उग्र, भोग, राजन्य आदि को जात्यार्य और कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव तथा तीसरे, पांचवें और सातवें कुलकर से लेकर शेष कुलकरों से उत्पन्न विशुद्ध वंश वाले कुल-आर्य हैं।८८
प्रज्ञापना में दूष्यक वस्त्र के व्यापारी, सूत के व्यापारी कपास या रुई के व्यापारी, नाई, कुम्हार आदि आर्यकर्म करने वाले मानवों को कर्मार्य माना है। शिल्पार्य मानव के तुण्णाग ( रफू करने वाले), तन्तुवाय (जुलाहे ), पुस्तकार, लेप्यकार, चित्रकार आदि अनेक प्रकार हैं । तत्त्वार्थवार्तिक में कर्मार्य और शिल्पार्य को एक ही माना है। उन्होंने कर्मार्य के सावद्य - कर्मार्य, अल्पसावद्य-कर्मार्य, असावद्य - कर्मार्य यह तीन भेद किए हैं। असि, मषि, कृषि, विद्या, शिल्प और वणिक्कर्म करने वाले सावद्य कर्मार्य हैं। श्रावक-श्राविकाएँ अल्पसावद्य-कर्मार्य हैं; संयमी श्रमण असावद्यकर्मार्य हैं । ८९ तत्त्वार्थभाष्य में यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, प्रयोग, कृषि, लिपि, वाणिज्य और योनि संपोषण से आजीविका करनेवाले बुनकर, कुम्हार, नाई, दर्जी और अन्य अनेक प्रकार के कारीगरों को शिल्पार्य माना है । ९०
अर्द्धमागधी भाषा बोलने वाले तथा ब्राह्मी लिपि में लिखने वाले को प्रज्ञापना में भाषार्य कहा है। तत्त्वार्थवार्तिक में भाषार्य का वर्णन नहीं आया है । तत्त्वार्थभाष्य में सभ्य मानवों की भाषा के नियत वर्णों, . लोकरूढ, स्पष्ट शब्दों तथा पांच प्रकार के आर्यों के संव्यवहार का सम्यक् प्रकार से उच्चारण करने वाले को भाषार्य माना है।९१ भगवान् महावीर स्वयं अर्धमागधी भाषा बोलते थे । १२ अर्धमागधी को देववाणी माना है । ९३
सम्यग्ज्ञानी को ज्ञानार्य, सम्यग्दृष्टि को दर्शनार्य और सम्यक्चारित्री को चारित्रार्थ माना गया है। ज्ञानार्य, दर्शनार्य, चारित्रार्य इन तीनों का सम्बन्ध धार्मिक जगत् से है। जिन मानवों को यह रत्नत्रय प्राप्त है, फिर वे भले ही किसी भी जाति के या कुल के क्यों न हों, आर्य हैं । रत्नत्रय के अभाव में वे अनार्य हैं। आर्यों का जो विभाग किया गया है वह भौगोलिक दृष्टि से, आजीविका की दृष्टि से, जाति और भाषा की दृष्टि से किया गया है । साढ़े पच्चीस देशों को जो आर्य माना गया है, हमारी दृष्टि से उसका कारण यही हो सकता है कि वहां पर जैनधर्म और जैनसंस्कृति का अत्यधिक प्रचार रहा है; इसी दृष्टि से उन्हें आर्य जनपद कहा गया हो । वैदिक परम्परा के विज्ञों ने अंग- बंग आदि जनपदों के विषय में लिखा है
" अंग - बंग - कलिङ्गेषु सौराष्ट्रमगधेषु च । तीर्थयात्रां विना गच्छन् पुनः संस्कारमर्हति ॥"
अर्थात्—अंग (मुगेर-भागलपुर), बंग (बंगाल), कलिंग (उडीसा ), सौराष्ट्र (काठियावाड़) और मगध (पटना गया आदि) में तीर्थयात्रा के सिवाय जाने से फिर से उपनयनादि संस्कार करके शुद्ध होना पड़ता है।
८८. जात्यार्याः इक्ष्वाकवो विदेहा हर्यम्बष्ठा ज्ञाताः कुरवो बुम्बुनाला उग्रभोगा राजन्या इत्येवमादयः । कुलार्या : - कुलकराश्चक्रवर्तिन बलदेवा वासुदेवाः। ये चान्ये आतृतीयादापंचमादासप्तमाद् वा कुलकरेभ्यो वा विशुद्धान्वयप्रकृतयः । - तत्त्वार्थभाष्य ३ । १५ ८९. तत्त्वार्थवार्तिक ३ | ३६, पृष्ठ २०१
९०. तत्त्वार्थभाष्य, ३ । १५
९१. वही, ३ । १५
९२. अद्धमागहाए भासाए भासाइ अरिहा धम्मं । ९३. देवा णं अद्धमागहाए भासाए भासंति ।
— औपपातिक सूत्र ५६
- भगवती ५ । ४ । १९१
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