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________________ कितने ही चिन्तकों का यह भी मानना है कि प्रज्ञापना और जीवाजीवाभिगम में क्षेत्र आदि की दृष्टि से जो आर्य और अनार्य का भेद प्रतिपादित है वह विभाजन आर्य और अनार्य जातियों के घुल-मिल जाने के पश्चात् का है। इसमें वर्ण और शरीरसंस्थान के आधार पर यह विभाग नहीं हुआ है ।९४ सूत्रकृतांग में वर्ण और शरीर के संस्थान की दृष्टि से विभाग किया है । वहाँ पर कहा गया है - पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण, इन चारों दिशाओं में मनुष्य होते हैं । उनमें कितने ही आर्य होते हैं, तो कितने ही अनार्य होते हैं। कितने ही उच्च गोत्र वाले होते हैं तो कितने ही नीच गोत्र वाले; कितने ही लम्बे होते हैं तो कितने ही नाटे होते हैं; कितने ही श्रेष्ठ वर्ण वाले होते हैं तो कितने की अपकृष्ट वर्ण वाले अर्थात् काले होते हैं, कितने ही सुरूप होते हैं, कितने ही कुरूप होते हैं । १५ ऋग्वेद में भी आर्य और आर्येतर ये दो विभाग मिलते हैं । अनार्य जातियों में भी अनेक सम्पन्न जातियां थी; उनकी अपनी भाषा थी, अपनी सभ्यता थी, अपनी संस्कृति थी, अपनी संपदा और अपनी धार्मिक मान्यताएँ थीं । ९६ प्रज्ञापना में कर्मभूमिज मनुष्यों के ही आर्य और म्लेच्छ ये दो भेद किए हैं । ९७ तत्त्वार्थभाष्य" और तत्वार्थवार्तिक१९ में अन्तद्वपज मनुष्यों के भी भेद किए हैं । म्लेच्छों की भी अनेक परिभाषाएँ बतायी गई हैं। प्रवचनसारोद्धार की दृष्टि से जो हेयधर्मों से दूर हैं और उपादेय धर्मों के निकट हैं वे आर्य हैं । १०० जो हेयधर्म को ग्रहण किए हुए हैं वे अनार्य हैं। आचार्य मलयगिरि ने प्रज्ञापनावृत्ति में लिखा है कि जिनका व्यवहार शिष्टसम्मत नहीं है वे म्लेच्छ हैं । १०१ प्रवचनसारोद्धार में लिखा है— जो पापी हैं, प्रचंड कर्म करने वाले हैं, पाप के प्रति जिनके अन्तर्मानस में घृणा नहीं है अकृत्य कार्यों के प्रति जिनके मन में पश्चाताप नहीं है । 'धर्म' यह शब्द जिनको स्वप्न में भी स्मरण नहीं आता, वे अनार्य हैं । १०२ प्रश्नव्याकरण में कहा गया है— विविध प्रकार के हिंसाकर्म म्लेच्छ मानव करते हैं । १०३ आर्य म्लेच्छों की ये परिभाषाएं हैं ये जातिपरक और क्षेत्रपरक न होकर गुण की दृष्टि से हैं। कौटिल्य अर्थशास्त्र में आर्य शब्द स्वतन्त्र नागरिक और दास परतंत्र नागरिक के अर्थ में व्यवहृत हुआ । १०४ प्रज्ञापना में कर्मभूमिज मनुष्य का एक विभाग अनार्य यानी म्लेच्छ कहा गया है। अनार्य देशों में समुत्पन्न लोग अनार्य कहलाते हैं। प्रज्ञापना के अनार्य देशों में नाम इस प्रकार हैं ९४. अतीत का अनावरण, भारतीय ज्ञानपीठ, पृष्ठ १५५ ९५. सूत्रकृतांग २ । १ ९६. ऋग्वेद ७ । ६ । ३; १ । १७६ । ३-४; ८ । ७० ।११ ९७. प्रज्ञापना १, सूत्र १८ ९८. तत्त्वार्थभाष्य, ३ । १५ ९९. तत्त्वार्थवार्तिक, ३ । ३६ १००. प्रवचनसारोद्धार, पृष्ठ ४१५ १०१. प्रज्ञापना १, वृत्ति १०२. पावा य चंडकम्मा, अणारिया निग्विणा निरणुतावी । धम्मोत्ति अक्खराई, सुमिणे वि न नज्जए जाणं । । - प्रवचनसारोद्धार, गाथा १५१६ १०३. प्रश्नव्याकरण, आंश्रव द्वार १ १०४. मूल्येन चायत्वं गच्छेत् । — कौटिल्य अर्थशास्त्र ३ । १३ ।२२ [ ४९ ]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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