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पांचवा विशेषपद (पर्यायपद)]
[३८१ होता है; अथवा संख्यातगुण हीन, असंख्यातगुण हीन या अनन्तगुण हीन होता है। यदि अधिक है तो अनन्तभाग अधिक, असंख्यातभाग अधिक या संख्यातभाग अधिक होता है; अथवा संख्यातगुण अधिक, असंख्यातगुण अधिक या अनन्तगुण अधिक होता है।
नीलवर्णपर्यायों, रक्तवर्णपर्यायों, पीतवर्णपर्यायों, हारिद्रवर्णपर्यायों और शुक्लवर्णपर्यायों की अपेक्षा से—(विचार किया जाए तो एक नारक, दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। सुगन्धपर्यायों और दुर्गन्धपर्यायों की अपेक्षा से—(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक है। तिक्तरसपर्यायों, कटुरसपर्यायों, काषायरसपर्यायों, आम्लरसपर्यायों तथा मधुररसपर्यायों की अपेक्षा से—(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है। कर्कशस्पर्श-पर्यायों, मृदु-स्पर्शपर्यायों, गुरुस्पर्शपर्यायों, लघुस्पर्शपर्यायों, शीतस्पर्शपर्यायों, उष्णस्पर्शपर्यायों, स्निग्धस्पर्श-पर्यायों तथा रूक्ष-स्पर्शपर्यायों की अपेक्षा से-(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है।
(इसी प्रकार) आभिनिबोधिकज्ञानपर्यायों, श्रुतज्ञानपर्यायों, अवधिज्ञानपर्यायों, मति-अज्ञान-पर्यायों, श्रुत-अज्ञानपर्यायों, विभंगज्ञानपर्यायों, चक्षुदर्शनपर्यायों, अचक्षुदर्शनपर्यायों तथा अवधिदर्शनपर्यायों की अपेक्षा से—(एक नारक दूसरे नारक से) षट्स्थानपतित हीनाधिक होता है।
हे गौतम! इस हेतु से ऐसा कहा जाता है, कि 'नारकों के पर्याय संख्यात नहीं, असंख्यात नहीं, किन्तु अनन्त कहे हैं।'
विवेचन-नैरयिकों के अनन्त पर्याय : क्यों और कैसे ?—प्रस्तुत सूत्र में अवगाहना, स्थिति, वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श एवं क्षायोपशमिकभावरूप ज्ञानादि के पर्यायों की अपेक्षा से हीनाधिकता का प्रतिपादन करके नैरयिकों के अनन्तपर्यायों को सिद्ध किया गया है।
प्रश्न का उद्भव और समाधान सामान्यतः जहाँ पर्यायवान् अनन्त होते हैं, वहाँ पर्याय भी अनन्त होते हैं, किन्तु जहाँ पर्यायवान् (नारक) अनन्त न हों (असंख्यात हों), वहाँ पर्याय अनन्त कैसे होते हैं ? इस आशय से यह प्रश्न श्रीगौतमसवामी द्वारा उठाया गया है। भगवान् के द्वारा उसका समाधान द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव के पर्यायों की अपेक्षा से किया गया है। ____ द्रव्य की अपेक्षा से नारकों में तुल्यता—प्रत्येक नारक दूसरे नारक से द्रव्य की दृष्टि से तुल्य है, अर्थात्—प्रत्येक नारक एक-एक जीव-द्रव्य है। द्रव्य की दृष्टि से उनमें कोई भेद नहीं है। इस कथन के द्वारा यह भी सूचित किया है कि प्रत्येक नारक अपने आप में परिपूर्ण एवं स्वतंत्र जीव द्रव्य है। यद्यपि कोई भी द्रव्य, पर्यायों से सर्वथा रहित कदापि नहीं हो सकता, तथापि पर्यायों की विवक्षा न करके केवल शुद्ध द्रव्य की विवक्षा की जाए तो एक नारक से दूसरे नारक में कोई विशेषता नहीं है।
प्रदेशों की अपेक्षा से भी नारकों में तुल्यता–प्रदेशों की अपेक्षा से भी सभी नारक परस्पर तुल्य हैं, क्योंकि प्रत्येक नारक जीव लोकाकाश के बराबर असंख्यातप्रदेशी होता है। किसी भी नारक के जीवप्रदेशों में किञ्चित् भी न्यूनाधिकता नहीं है। सप्रदेशी और अप्रदेशी का भेद केवल पुद्गलों में