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निषेध किया है। दिगम्बरपरम्परा मान्य षट्खण्डागम में मनुष्य-स्त्रियों के गुणस्थान के सम्बन्ध में चिन्तन करते हुए लिखा है कि "मनुष्यस्त्रियाँ सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि संयतासंयत और संयत गुणस्थानों में नियम से पर्याप्त होती हैं।७१ इसमें 'संजत' शब्द को सम्पादकों ने टिप्पण में दिया है, जिसका सारांश यह है कि मनुष्य स्त्री को 'संयत' गुणस्थान हो सकता है और संयत गुणस्थान होने पर स्त्री मोक्ष में जा सकती है। प्रस्तुत प्रश्न को लेकर दिगम्बर समाज में प्रबल विरोध का वातावरण समुत्पन्न हुआ, तब ग्रन्थ के सम्पादक डॉ. हीरालालजी जैन आदि ने पुनः उसका स्पष्टीकरण षट्खण्डागम के तृतीय भाग की प्रस्तावना में किया, किन्तु जब विज्ञों ने मूडबिद्री [कर्नाटक] में षट्खण्डागम की मूल प्रति देखी तो उसमें भी 'संजद' शब्द मिला है।
वट्टकरेस्वामिविरचित मूलाचार में आर्यिकाओं के आचार का विश्लेषण करते हुए कहा है -जो साधु अथवा आर्यिका इस प्रकार आचरण करते हैं, वे जगत में पूजा, यश व सुख को पाकर मोक्ष को पाते हैं।७२ इसमें भी आर्यिकाओं के मोक्ष में जाने का उल्लेख है, यद्यपि यह स्पष्ट नहीं है कि वे उसी भव में मोक्ष प्राप्त करती हैं अथवा तत्पश्चात् के भव में। बाद के दिगम्बर आचार्यों ने अपने ग्रन्थों में और प्राचीन ग्रन्थों की टीकाओं में स्पष्ट रूप से स्त्रीनिर्वाण का निषेध किया है।
जो पुरुष शरीर से सिद्ध होते हैं, वे ' पुरुषलिंग सिद्ध' हैं। नपुंसक शरीर से सिद्ध होते हैं, वे 'नपुंसकलिंग सिद्ध' हैं जो तीर्थकर प्रतिपादित श्रमण पर्याय में सिद्ध होते हैं वे 'स्वलिंगसिद्ध' हैं। परिव्राजक आदि के वेष सें होने वाले 'अन्यलिंगसिद्ध' हैं । जो गृहस्थ के वेष में सिद्ध होते हैं, वे 'गृहिलिंगसिद्ध' हैं। एक समय में अकेले ही सिद्ध होने वाले 'एकसिद्ध हैं। एक ही समय में एक से अधिक सिद्ध होने वाले 'अनेकसिद्ध' हैं। सिद्ध के इन पन्द्रह भेदों के अतिरिक्त अन्य प्रकार से भी सिद्धों के भेद प्रस्तुत किए हैं।
सिद्धों के जो पन्द्रह प्रकार प्रतिपादित किये हैं, वे सभी तीर्थसिद्ध और अतीर्थसिद्ध इन दो प्रकारों में समाविष्ट हो जाते हैं। विस्तार से निरूपण करने का मूल आशय सिद्ध बनने के पूर्व उस जीव की क्या स्थिति थी, यह बतलाना है। प्रज्ञापना के टीकाकार ने भी इसे स्वीकार किया है।
जिस प्रकार जैन आगम साहित्य में सिद्धों के प्रकार बताये हैं, वैसे ही बौद्ध आगम में स्थविरवाद की दृष्टि से बोधि के तीन प्रकार बताये हैं -सावकबोधि [श्रावकबोध], पच्चेकबोधि, [प्रत्येकबोधि], सम्मासबोधि [सम्यक् संबोधि] । श्रावकबोधि उपासक को अन्य के उपदेश से जो बोधि प्राप्त होती है, उसे श्रावकबोधि कहा है। श्रावकसम्बुद्ध भी अन्य को उपदेश देने का अधिकारी है।७४
जैन दृष्टि से प्रत्येकबोधि को अन्य के उपदेश की आवश्यकता नहीं होती, वैसे ही पच्चेकबोधि को भी दूसरे के उपदेश की जरूरत नहीं होती। उसका जीवन दूसरों के लिए आदर्श होता है। ७१. सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठि संजादासंजद (अत्र संजद इति पाठशेषः प्रतिभाति)-ट्ठाणे णियमा पज्जतियओ।
-षट्खण्डागम भाग १ सूत्र ९३ १.३३२, प्रका. सेठ लक्ष्मीचन्द शिताबराय जैन साहित्योद्धारक फंड कार्यालय. अमरावती
(बरार), सन् १९३९ ७२. ते जगपुणं कित्तिं सुहं च लभ्रूण सिझंति - मूलाचार ४/१९६, पृ. १६८ ७४. विनयपिटक; महावग्ग १/२१
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