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________________ के अत्यधिक सन्निकट है। पुद्गल तो विश्व का मूल आधार है ही, भले ही वैज्ञानिक उसे स्वतंत्र द्रव्य न मानते हों किन्तु वैज्ञानिक धीरे-धीरे नित्य नूतन अन्वेषणा कर रहे हैं। सम्भव है निकट भविष्य में पुद्गल और जीव का स्वतंत्र अस्तित्व मान्य करें। सिद्ध : एक चिन्तन ___ प्रज्ञापना के प्रथम पद में अजीवप्रज्ञापना के पश्चात् जीवप्रज्ञापना के सम्बन्ध में चिन्तन किया है। जीव के संसारी और सिद्ध ये मुख्य भेद किये हैं। जो जीते हैं, प्राणों को धारण करते हैं वे जीव हैं। प्राण के द्रव्यप्राण और भावप्राण ये दो प्रकार हैं। पांच इन्द्रियाँ, मनोबल, वचनबल और कायबल, श्वासोच्छ्वास और आयुष्य, ये दस द्रव्यप्राण हैं। ज्ञान, दर्शन, सुख और वीर्य ये चार भावप्राण हैं। संसारी जीव द्रव्य और भाव प्राणों से युक्त होता है और सिद्ध जीव केवल भावप्राणों से युक्त होते हैं।६९ ।। नरक, तिर्यंच , मनुष्य और देव इन चार गतियों में परिभ्रमण करने वाले संसारसमापन्न हैं। वे संसारवर्ती जीव हैं। जो संसारपरिभ्रमण से रहित हैं, वे असंसारसमापन्न-सिद्ध जीव हैं। वे जन्म-मरण रूप समस्त दुःखों से मुक्त होकर सिद्ध अवस्था को प्राप्त कर चुके हैं। सिद्धों के पन्द्रह भेद यहाँ पर प्रतिपादित किये गये हैं। ये पन्द्रह भेद समय, लिंग, वेश, परिस्थिति आदि दृष्टि से किये गये हैं। - तीर्थ की संस्थापना के पश्चात् जो जीव सिद्ध होते हैं, वे 'तीर्थसिद्ध' हैं। तीर्थ की संस्थापना के पूर्व या तीर्थ का विच्छेद होने के पश्चात् जो जीव सिद्ध होते हैं वे 'अतीर्थसिद्ध' हैं। जैसे भगवान् ऋषभदेव के तीर्थ की स्थापना के पूर्व ही माता मरुदेवी सिद्ध हुई। मरुदेवी माता का सिद्धिगमन तीर्थ की स्थापना के पूर्व हुआ था। दो तीर्थंकरों के अन्तराल काल में यदि शासन का विच्छेद हो जाय और ऐसे समय में कोई जीव जातिस्मरण आदि विशिष्ट ज्ञान से सिद्ध होते हैं तो वे 'तीर्थव्यवच्छेद' सिद्ध कहलाते हैं। ये दोनों प्रकार के . सिद्ध अतीर्थंसिद्ध की परिगणना में आते हैं। जो तीर्थंकर होकर सिद्ध होते हैं, वे 'तीर्थंकरसिद्ध' कहलाते हैं। सामान्य केवली 'अतीर्थंकरसिद्ध' कहलाते हैं। संसार की निस्सारता को समझ कर बिना उपदेश के जो स्वयं ही संबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं वे 'स्वयंबुद्धसिद्ध'। नन्दीचूर्णि में तीर्थंकर और तीर्थंकरभिन्न ये दोनों प्रकार के स्वयंबुद्ध बताये हैं। यहाँ पर स्वयंबुद्ध से तीर्थंकरभिन्न स्वयंबुद्ध ग्रहण किये गए हैं। जो वृषभ वृक्ष बादल प्रभृति किसी भी बाह्य निमित्तकारण से प्रबुद्ध होकर सिद्ध होते हैं वे 'प्रत्येकबुद्धसिद्ध हैं।' प्रत्येकबुद्ध समूहगच्छ में नहीं रहते। वे नियमतः एकाकी ही विचरण करते हैं। यहां यह स्मरण रखना चाहिए कि स्वयंबुद्ध और प्रत्येकबुद्ध दोनों को परोपदेश की आवश्यकता नहीं होती, तथापि दोनों में मुख्य अन्तर यह है कि स्वयंबुद्ध में जातिस्मरण आदि का ज्ञान होता है जबकि प्रत्येकबुद्ध बाह्य निमित्त से प्रबुद्ध होता है। जो बोधप्राप्त आचार्य के द्वारा बोधित होकर सिद्ध होते हैं, वे 'बुद्धबोधितसिद्ध' हैं। स्त्रीलिंग में सिद्ध होने वाली भव्यात्माएँ 'स्त्रीलिंगसिद्ध' कहलाती हैं। ___श्वेताम्बर साहित्य में स्त्री का निर्वाण माना है, जबकि दिगम्बरपरम्परा के ग्रन्थों में स्त्री के निर्वाण का ६९. प्रज्ञापनासूत्र, मलयगिरि वृत्ति ७०. ते दुविहा सयंबुद्धा—तित्थयरा तित्थयरवइरित्ता य, इह वइरित्तेहिं अहिगारो। -नन्दी अध्ययनचूर्णि [४४]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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