________________
३७६ ]
[ प्रज्ञापना सूत्र
जीवद्रव्य के नारक आदि भेदों के पर्यायों का विचार अनेक प्रकार से, अनेक दृष्टियों से किया गया है, और उनमें जैनदर्शनसम्मत अनेकान्त दृष्टि का उपयोग स्पष्ट है । जैसे—जीव के नारकादि जिन भेदों के पर्यायों का निरूपण है, उसमें निम्नोक्त दस दृष्टियों का सापेक्ष वर्णन किया गया है, अर्थात् — नारकादि जीवों के अनन्तपर्यायों की संगति बताने के लिए दसों दृष्टियों से असंख्यात और कई दृष्टियों से अनन्त संख्या होती है । अनन्तदर्शक दृष्टि को ध्यान में रखते हुए शास्त्रकार ने नारकादि प्रत्येक के पर्यायों को अनन्त कहा है, क्योंकि उस दृष्टि से सबसे अधिक पर्याय घटित होते हैं । तथा उन-उन संख्याओं का सीधा प्रतिपादन नहीं किया गया, किन्तु एक नारक की दूसरे नारक के साथ तुलना करके वह संख्या फलित की गई है। जैसे कि दस दृष्टियों का क्रम से वर्णन इस प्रकार है - ( १ ) द्रव्यार्थता — द्रव्य दृष्टि से कोई नारक, अन्य नारकों से तुल्य है । अर्थात् — द्रव्यांपेक्षया कोई नारक एक द्रव्य है, वैसे ही अन्य नारक भी एक द्रव्य है । निष्कर्ष यह कि किसी भी नारक को द्रव्य दृष्टि से एक ही कहा जाता है, उसकी संख्या एक से अधिक नहीं होती, अतः वह संख्यात है । (२) प्रदेशार्थता — प्रदेश की अपेक्षा से भी नारक जीव परस्पर तुल्य हैं । अर्थात् — जैसे एक नारक जीव के प्रदेश असंख्यात हैं, वैसे अन्य नारक के प्रदेश भी असंख्यात हैं, न्यूनाधिक नहीं । (३) अवगाहनार्थता — अवगाहना ( जीव के शरीर की ऊँचाई) की दृष्टि से विचार किया जाए तो एक नारक अन्य नारक से हीन, तुल्य या अधिक भी होता है, और वह असंख्यात - संख्यात भाग हीनाधिक या संख्यात- असख्यातगुण हीनाधिक होता है । निष्कर्ष यह है कि अवगाहना की दृष्टि से नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं । (५) स्थिति की अपेक्षा से — विचारणा भी अवगाहना की तरह ही है। अर्थात् — वह पूर्वोक्त प्रकार से चतु:स्थान हीनाधिक या तुल्य होती है । निष्कर्ष यह है कि स्थिति की दृष्टि से भी नारक के असंख्यात प्रकार के पर्याय बनते हैं । ( ५ से ८ ) कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, एवं स्पर्श की अपेक्षा से-वर्णादि की अपेक्षा से भी नारक के अनन्तपर्याय बनते हैं, क्योंकि एकगुण कृष्ण आदि वर्ण तथैव गन्ध, रस और स्पर्श से लेकर अनन्तगुण कृष्णादि वर्ण, तथा गन्ध, रस, और स्पर्श होना सम्भव है। इस प्रकार वर्णादि चारों के प्रत्येक प्रकार की दृष्टि से नारक के अनन्त पर्याय घटित होना सम्भव है । इस प्रकार वर्णादि चारों के प्रत्येक प्रकार की दृष्टि से नारक के अनंन्त पर्याय घटित हो सकने से उसके अनन्त पर्याय कहे हैं । ( ९.१० ) ज्ञान और दर्शन की अपेक्षा से - ज्ञान (अज्ञान) और दर्शन की दृष्टि से भी नारक के अनन्त पर्याय हैं, ऐसा शास्त्रकार कहते हैं । आचार्य मलयगिरि कहते हैं— इन दसों दृष्टियों का समावेश चार दृष्टियों में किया जा सकता है। जैसे—- द्रव्यार्थता और प्रदेशार्थता का द्रव्य में, अवगाहना का क्षेत्र में, स्थिति का काल में तथा वर्णादि एवं ज्ञानादि का भाव में समावेश हो सकता है ।
१. पण्णवणासुतं मू. पा. सू. ४५५ से ४९९ तक तथा पण्णवणासुत्तं भा. २ पंचमपद - प्रस्तावना पृ. ६३-६४