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पंचम विशेष पद (पर्यायपद) : प्राथमिक ]
[३७७ । इसी प्रकार आगे जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम अवगाहना, स्थिति, वर्णादि और ज्ञानादि को लेकर
चौबीस दण्डक जीवों के पर्यायों की विचारणा की गई है। 0 इसके पश्चात्-अजीव के दो भेद-अरूपी अजीव और रूपी अजीव करके रूपी अजीव के
परमाणु, स्कन्ध, देश और स्कन्धप्रदेश, यों चार प्रकार होते हुए भी यहाँ मुख्यतया परमाणुपुद्गल (निरंशी अंश) और स्कन्ध (अनेक परमाणुओं का एकत्रित पिण्ड) दो के ही पर्यायों का निरूपण किया गया है। 0 प्रथमपद में पुद्गल (रूपी अजीव), जो नाना प्रकारों में परिणत होता है, उसका निरूपण है, जबकि
इस पद में, बताए गए रूपी अजीव-भेदों के पर्यायों की संख्या का निरूपण है। सर्वप्रथम समग्रभाव से रूपी अजीव के पर्यायों की संख्या अनन्त बता कर फिर परमाणु द्विप्रदेशी स्कन्ध, त्रिप्रदेशी स्कन्ध, यावत् दशप्रदेशी स्कन्ध, संख्यातप्रदेशी, असंख्यातप्रदेशी और अनन्तप्रदेशी स्कन्धों के प्रत्येक के अनन्त पर्याय कहे हैं। इन सबके पर्यायों का विचार जीव की तरह द्रव्य, क्षेत्र, काल, और भाव अथवा पूर्वोक्त दस दृष्टियों से किया गया है। परमाणु से लेकर अनन्त प्रदेशी पुद्गलस्कन्ध तक के पर्यायों का निरूपण करते हुए शास्त्रकार कहते हैं कि लोकाकाश असंख्यातप्रदेशी है, तथापि अनन्तप्रदेशी स्कन्ध भी एक से लेकर असंख्यातप्रदेश में समा सकता है। इसे प्रदीप के दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है। इस प्रकार परमाणु की तरह स्कन्धों की स्थिति एक समय से लेकर असंख्यात काल से अधिक नहीं है। वर्णादि पर्याय भी अनन्त हैं। तदनन्तर स्थिति, अवगाहना और वर्णादिकृत भेंदों में भी जघन्य, उत्कृष्ट और मध्यम, इन तीन प्रकारों की अपेक्षा से भी पर्याय का विचार किया है। * अन्य दर्शनीय मान्यता से अन्तर—यह है कि द्रव्य के यदि पर्याय (परिणाम) होते हैं तो वह द्रव्य
कूटस्थनित्य नहीं, किन्तु परिणामिनित्य मानना चाहिए। परमाणुवादी नैयायिक वैशेषिक परमाणु को कूटस्थंनित्य मानते हैं जबकि जैनदर्शन परिणामिनित्य मानता है। तथा स्कन्ध और परमाणु में अवयवअवयवी का आत्यन्तिक भेद भी जैनदर्शन नहीं मानता, न ही परमाणु में पार्थिवपरमाणु आदि के रूप में जाति-भेद मानता है, तथा परमाणु में रूप रसादि चारों का होना अनिवार्य मानता है।
१. पण्णवणासुत्तं मूल. पा. सू. ५१९, ४४० तथा पण्णवणासुत्तं भा. २ पंचमपद की प्रस्तावना पृ. ६२ २. पण्णवणासत्तं मू. पा सू. ५०० से ५५८ तक तथा प्रज्ञापना. म वृत्ति पत्रांक २४२ ३. पण्णवणासुत्तं भा. २, पंचमपद प्रस्तावना, पृ. ६७