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पंचम विशेष पद (पर्यायपद): प्राथमिक]
[३७५ जीवसामान्य अनेक जीवों की अपेक्षा से तिर्यक्सामान्य है, जबकि एक ही जीव नानापर्यायों की अपेक्षा से ऊर्ध्वतासामान्य है। इसी प्रकार अजीवद्रव्य कोई पृथक् एक ही द्रव्य नहीं है, परन्तु अनेक अजीव (अचेतन) द्रव्य हैं, वे सब जीव से भिन्न हैं, अतः उस अर्थ में उनकी समानता (एकता नहीं, अमुक अपेक्षा से एकता)२ अजीवद्रव्य कहने से व्यक्त होती है। इस कारण वह सामान्य अजीवद्रव्यतिर्यक्सामान्य है। तथा इस तिर्यक्सामान्य के पर्याय, विशेष या भेद वे ही प्रस्तुत में जीव और अजीव के पर्याय, विशेष या भेद
हैं, यह समझना चाहिए।३.. । संसारी जीवों में कर्मकृत जो अवस्थाएँ, जिनके आधार से जीव पुद्गलों से सम्बद्ध होता है, उस
सम्बन्ध को लेकर जीव की विविध अवस्थाएँ—पर्याय बनती हैं। वे पौद्गलिक पर्यायें भी व्यवहारनय से जीव की पर्याय मानी गई हैं। संसारी अवस्था में जीव और पुद्गल अभिन्न-से प्रतीत होते हैं, यह मानकर जीव के पर्यायों का वर्णन है। जैसे स्वतंत्र रूप से वर्ण, गन्ध, रस और स्पर्श की विविधता के कारण पुद्गल के अनन्त पयार्य (सू. ५१९ में) बताए हैं, वैसे ही जब वे ही पुद्गल जीव से सम्बद्ध होते हैं, तब वे सब जीव के पर्याय (सू. ४४० में) माने गए हैं, क्योंकि जब वे जीव के साथ सम्बद्ध होते हैं, तब पुद्गल में होने वाले परिणमन में जीव भी कारण है, इस कारण वे पर्याय पुद्गल के होते हुए भी जीव के माने गए हैं। संसारी अवस्था में अनादिकाल से प्रचलित जीव और पुद्गल का कथंचित् अभेद भी है। कर्मोदय के कारण ही जीवों में आकार, रूप आदि की विविधता है, और नाना पर्यायों का सर्जन होता है। अतः जीव ज्ञानादिस्वरूप होते हुए भी वह अनन्तपर्यायुक्त
है। 0 प्रस्तुत पद में जीव और अजीव द्रव्यों के भेदों और पर्यायों का निरूपण है। जीव-अजीव के भेदों
के विषय में तो प्रथमपद में निरूपण था ही, किन्तु उन प्रत्येक भेदों में जो अनन्तपर्याय हैं, उनका प्रतिपादन करना इस पंचम पद की विशेषता है। प्रथम पद में भेद बताए गए, तीसरे पद में उनकी संख्या बताई गई, किन्तु तृतीयपद में संख्यागत तारतम्य का निरूपण मुख्य होने से किस विशेष की कितनी संख्या है, यह बताना बाकी था, अतः प्रस्तुत पद में उन-उन भेदों की तथा बाद में उनउन भेदों के पर्यायों की संख्या भी बता दी गई है। सभी द्रव्यभेदों की पर्यायसंख्या तो अनन्त है, किन्तु भेदों की संख्या में कितने ही संख्यात हैं, असंख्यात हैं, तो कई अनन्त (वनस्पतिकायिक और सिद्धजीव) भी हैं।
१. न्यायावतार वार्तिक वृत्ति-प्रस्तावना पृ. २५-३१, आगम युग का जैनदर्शन, पृ. ७६-८६, २. 'एगे आया' इत्यादि स्थानांगसूत्र वाक्य कल्पित एकता के हैं। ३. पण्णवणासुत्तं मूल. सू. ४३९, ५९१ ४. पण्णवणा. मूल, सू. ४४०