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चतुर्थ स्थितिपद]
[३२३
[३४३-१ उ.] गौतम! (देवियों की स्थिति) जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट पचपन पल्योपम की है।
[२] अपज्जत्तयदेवीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुहत्तं। [३४४-२ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक देवियों की स्थिति कितने काल तक की स्थिति कही गई है? [३४४-२] गौतम! (उनकी स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त की है, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [३] पज्जत्तयदेवीणं भंते! केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई अंतोमुहत्तूणाई, उक्कोसेणं पणपण्णं पलिओवमाइं अंतोमुहुत्तूणाई।
[३४४-३ प्र.] भगवन् ! पर्याप्तक-देवियों की स्थिति कितने काल की कही गई है ?
[३४४-३ उ.] गौतम! (पर्याप्तक देवियों की स्थिति) जघन्य अन्तर्मुहूर्त कम दस हजार वर्ष की और उत्कृष्ट अन्तर्मुहूर्त कम पचपन पल्योपम की है।
विवेचन—देवों और देवियों की स्थिति का निरूपण- प्रस्तुत दो सूत्रों [सू. ३४३-३४४] द्वारा देवों, देवियों और उनके अपर्याप्तकों और पर्याप्तकों की स्थिति का निरूपण किया गया है।
निष्कर्ष—देवों की अपेक्षा देवियों की स्थिति (आयु) कम है, यह इस पाठ पर से फलित होता
भवनवासियों की स्थिति की प्ररूपणा
३४५. [१] भवणवासीणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं। [३४५-१ प्र.] भगवन् ! भवनवासी देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है ? [३४५-१ उ.] गौतम! जघन्य दस हजार वर्ष की है और उत्कृष्ट कुछ अधिक एक सागरोपम की है। [२] अपज्जत्तयभवणवासीणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ? गोयमा! जहण्णेणं वि अंतोमुहत्तं, उक्कोसेण वि अंतोमुत्तं। [३४५-२ प्र.] भगवन् ! अपर्याप्तक भवनवासी देवों की स्थिति कितने काल की कही गई है? [३४५-२] गौतम! जघन्य अन्तर्मुहूर्त की और, उत्कृष्ट भी अन्तर्मुहूर्त की है। [३] पज्जत्तयभवणवासीणं भंते! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णत्ता ?
गोयमा! जहण्णेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तूणाई, उक्कोसेणं सातिरेगं सागरोवमं अंतोमुहुत्तूणाई।