________________
मूर्धन्य मनीषियों का यह अभिमत है कि जब तक तीर्थ की संस्थापना नहीं हो जाती, तब तक सिद्धों को नमस्कार किया जाता है और जब तीर्थ की स्थापना हो जाती है, सन्निकट के उपकारी होने से प्रथम अरिहंत को और उसके पश्चात् सिद्धों को नमस्कार करने की प्रथा प्रारम्भ हुई होगी। प्राचीनतम ग्रन्थों में मंगलाचरण की यह पद्धति प्राप्त होती है। इसका यह अर्थ नहीं है कि निश्चित रूप से ऐसा ही क्रम रहा हो। वन्दन का जहाँ तक प्रश्न है, वह साधक की भावना पर अवलम्बित है। तीर्थंकरों के अभाव में तीर्थंकरपरम्परा का प्रबल प्रतिनिधत्व करने वाले आचार्य और उपध्याय हैं, अत: वे भी वन्दनीय माने गये और आचार्य, उपाध्याय पद के अधिकारी साधु हैं, इसलिए वे भी पांचवें पद में नमस्कार के रूप में स्वीकृत हुए हों। पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र का निर्माण किसने किया? यह प्रश्न सर्वप्रथम आवश्यकनियुक्ति में समुपस्थित किया गया है। उत्तर में नियुक्तिकार भद्रबाहु ने यह समाधान किया कि पंचपरमेष्ठीनमस्कार महामंत्र सामायिक का ही एक अंग है। अतः सर्वप्रथम पंचपरमेष्ठियों को नमस्कार कर सामायिक करना चाहिए।६३ नमस्कारमहामंत्र उतना ही पुराना है, जितना सामायिकसूत्र। सामायिक के अर्थकर्ता तीर्थंकर हैं और सूत्रकर्ता गणधर हैं।६४ इसलिए नमस्कारमहामंत्र के भी अर्थकर्ता तीर्थंकर हैं और उसके सूत्रकर्ता गणधर हैं।
द्वितीय प्रश्न यह है कि पंचनमस्कार यह आवश्यक का ही एक अंश है या यह अंश दूसरे स्थान से इसमें स्थापित किया गया है? इस प्रश्न का उत्तर भी जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने विशेषावश्यकभाष्य में स्पष्ट रूप से दिया है कि आचार्य देववाचक ने नन्दीसूत्र में पंचनमस्कार महामंत्र को पृथक् श्रुतस्कंध के रूप में नहीं गिना है।
तथापि यह स्पष्ट है कि यह सूत्र है और प्रथम मंगल भी है, इसीलिए नमस्कारमहामंत्र केवल आवश्यकसूत्र का ही अंश नहीं है, किन्तु सर्वश्रुत का आदिमंगल रूप भी है। किसी भी श्रुत का पाठ ग्रहण करते समय नमस्कार करना आवश्यक है। आचार्य भद्रबाहु ने नमस्कारमहामंत्र की उत्पत्ति, अनुत्पत्ति की गहराई से चर्चा विविध नयों की दृष्टि से की है।६५ आचार्य जिनभद्र ने तो अपने विस्तृत भाष्य में दार्शनिक दृष्टि से शब्द की नित्य-अनित्यता की चर्चा कर नयदृष्टि से उस पर चिन्तन किया है। इस महामंत्र के रचयिता अज्ञात हैं। एक प्राचीन आचार्य ने तो स्पष्ट रूप से लिखा है
"आगे चौबीसी हुई अनन्ती, होसी बार अनन्त!
नवकार तणी कोई आदि न जाने, यूँ भाख्यो भगवन्त!!" महानिशीथ, जिसके उद्धारक हरिभद्र माने जाते हैं, उसमें महामंत्र के उद्धारक आर्य वज्रस्वामी माने गये हैं, और आचार्य हरिभद्र के बाद होने वाले धवला टीकाकार वीरसेन आचार्य की दृष्टि से नमस्कार के कर्ता आचार्य पुष्पदन्त हैं।६६ आचार्य पुष्पदन्त का अस्तित्वकाल वीरनिर्वाण की सातवीं शताब्दी (ई. पहली ६३. कयपंचनमोक्कारो करेइ सामाइयंति सोऽभिहितो।
सामाइयंगमेव य जं सो सेसं अतो वोच्छं॥ -आवश्यकनियुक्ति, गाथा १०२७. ६४. (क) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा १५४४ (ख) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ८९, ९० ६५. (क) आवश्यकनियुक्ति, गाथा ६४४ से ६४६ (ख) विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ३३३५ से ३३३८ तक ६६. षट्खण्डागम, धवला टीका, भाग, १ पृष्ठ ४१ तथा भाग २, प्रस्तावना पृष्ठ ३३ से ४१
[३९ ]