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________________ शताब्दी) है। हम पूर्व ही बता चुके हैं कि खारवेल का शिलालेख, जो ई. पूर्व १५२ का है, उसमें "नमो अरहंताण, नमो सव्वसिद्धाणं," ये पद प्राप्त होते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि नमस्कारमहामंत्र का अस्तित्व आचार्य पुष्पदन्त से बहुत पहले था। श्वेताम्बर-परम्परा की दृष्टि से नमस्कारमहामंत्र के रचयिता तीर्थंकर और गणधर हैं। जैसा कि आवश्यकनियुक्ति से स्पष्ट है। अस्तिकाय : एक चिन्तन प्रज्ञापना के प्रथम पद में ही जीव और अजीव के भेद और प्रभेद बताकर फिर उन भेद और प्रभेदों की चर्चाएँ अगले पदों में की हैं। प्रथम पद में अजीव के सम्बन्ध में विस्तार से निरूपण है। अजीव का निरूपण रूपी और अरूपी और इन दो भेदों में करके रूपी में पुद्गल द्रव्य का निरूपण किया है और अरूपी में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि के रूप में अजीव द्रव्य का वर्णन किया गया है। किन्तु प्रस्तुत आगम में इन भेदों का वर्णन करते समय अस्तिकाय शब्द का प्रयोग किया है, किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है जो आगमों की प्राचीनता का प्रतीक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय इन तीनों को देश और प्रदेश इन भेदों में विभक्त किया है। किन्तु अस्तिकाय शब्द का अर्थ कहीं पर भी मूल आगम में नहीं दिया गया है। अद्धा-समय के साथ अस्तिकाय शब्द व्यवहृत नहीं हुआ है। इससे धर्मास्तिकाय आदि के साथ अद्धा समय का जो अन्तर है, वह स्पष्ट होता है। प्रस्तुत आगम में जीव के साथ अस्तिकाय शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, परन्तु इसका तात्पर्य यह नहीं है कि जीव के प्रदेश नहीं हैं. क्योंकि प्रज्ञापना के पांचवें पद में जीव के प्रदेशों पर चिन्तन किया गया है। प्रथम पद में जिनको अजीव और जीव के मौलिक भेद कहे हैं, उन्हें ही पांचवें पद में जीवपर्याय और अजीवपर्याय कहा है। तेरहवें पद में उन्हीं को परिणाम नाम से प्रतिपादित किया है। अजीव के अरूपी और रूपी ये दो भेद बताकर धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और अद्धा समय इन चार को अरूपी अजीव के अन्तर्गत लिया गया है। धर्म, अधर्म और आकाश के स्कन्ध, देश और प्रदेश ये प्रत्येक के विभाग किये गये हैं। यहाँ पर देश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धि के द्वारा कल्पित दो तीन आदि प्रदेशात्मक विभाग है और प्रदेश का अर्थ धर्मास्तिकाय आदि का बुद्धिकल्पित प्रकृष्ट देश जिसका पुनः विभाग न हो सके, निर्विभाग विभाग प्रदेश है। धर्मास्तिकाय आदि के समग्र प्रदेश का समूह स्कंध है। 'अद्धा' काल को कहते हैं, अद्धारूप समय अद्धासमय है। वर्तमान काल का एक ही समय 'सत्' होता है। अतीत और अनागत के समय या तो नष्ट हो चुके होते हैं, या उत्पन्न नहीं हुए होते हैं । अतः काल में देश-प्रदेशों के संघात की कल्पना नहीं है। असंख्यातसमय आदि की समूहरूप आवलिका की कल्पना व्यावहारिक है। रूपी अजीव के अन्तर्गत् पुद्गल को लिया गया है। उसके स्कन्ध, स्कन्धदेश, स्कन्धप्रदेश और परमाणु पुद्गल ये चार प्रकार हैं। पुद्गल वर्ण, गन्ध, रस, स्पर्श और संस्थानयुक्त होता है। पांच वर्ण के सौ भेद, दो गंध के छियालीस भेद, पांच रस के सौ भेद, आठ स्पर्श के एक सौ चौरासी भेद, पांच संस्थान के सौ [४०]
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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