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रचना से पूर्व जीवाजीवाभिगम की रचना हुई है। अब रहा प्रज्ञापना के नाम का उल्लेख जीवाजीवाभिगम में हुआ है, उसका समाधान यही है कि प्रज्ञापना में उन विषयों की चर्चा विस्तार से हुई है। इसी कारण से प्रज्ञापना का उल्लेख भगवती आदि अंग-साहित्य में भी हुआ है और यह उल्लेख आगमलेखन के युग का है।
आगम प्रभावक पुण्यविजयजी म. का यह भी मन्तव्य है कि जैसे आचारांग, सूत्रकृतांग आदि प्राचीन आगमों में मंगलाचरण नहीं है वैसे ही जीवाजीवाभिगम में भी मंगलाचरण नहीं है। इसलिए उसकी रचना प्रज्ञापना से पहले की है। प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलाचरण किया गया है। इसलिए वह जीवाजीवाभिगम से बाद की रचना है।६० मंगलाचरण : एक चिन्तन
मंगलाचरण आगमयुग में नहीं था। आगमकार अपने अभिधेय के साथ ही आगम का प्रारम्भ करते थे। आगम स्वयं मंगलस्वरूप होने के कारण उसमें मंगलवाक्य अनिवार्य नहीं माना गया। आचार्य वीरसेन और आचार्य जिनसेन ने कषायपाहुड की जयधवला टीका में लिखा है—आगम में मंगलवाक्य का नियम नहीं है। क्योंकि परमागम में ध्यान को केन्द्रित करने के नियम से मंगल का फल सम्प्राप्त हो जाता है।६१ यही कारण है कि आचार्य गुणधर ने अपने कषायपाहुड ग्रन्थ में मंगलाचरण नहीं किया।६२ ___द्वादशांगी में केवल भगवतीसूत्र को छोड़कर अन्य किसी भी आगम के प्रारम्भ में मंगलवाक्य नहीं है। वैसे ही उपांग में प्रज्ञापना के प्रारम्भ में मंगलगाथाएँ आई हैं। उन गाथाओं में सर्वप्रथम सिद्ध को नमस्कार किया गया है। उसके पश्चात् श्रमण भगवान् महावीर को नमस्कार किया है। प्रज्ञापना की प्राचीनतम जितनी भी हस्तलिखित प्रतियाँ उपलब्ध हुई हैं, उन सभी प्रतियों में पंचनमस्कार महामंत्र है। प्रज्ञापना के टीकाकार आचार्य हरिभद्र और आचार्य मलयगिरि ने पंचनमस्कार महामंत्र की व्याख्या नहीं की है। इस कारण आगमप्रभावक पुण्यविजयजी म. प. दलसुखभाई मालवणिया आदि का अभिमत है कि प्रज्ञापना के निर्माण के समय नमस्कारमहामंत्र उसमें नहीं था। किन्तु लिपिकर्ताओं ने प्रारम्भ में उसे संस्थापित किया हो। षट्खण्डागम में भी आचार्य वीरसेन के अभिमतानुसार पंचनमस्कार महामंत्र का निर्देश है।
प्रज्ञापना में प्रथम सिद्ध को नमस्कार कर उसके पश्चात् अरिहंत को नमस्कार किया है, जबकि पंचनमस्कार महामंत्र में प्रथम अरिहंत को नमस्कार है और उसके पश्चात् सिद्ध को। उत्तराध्ययन आदि आगम साहित्य में यह स्पष्ट उल्लेख है कि तीर्थंकर दीक्षा ग्रहण करते समय सिद्धों को नमस्कार करते हैं। इस दृष्टि से जैन परम्परा में प्रथम सिद्धों को नमस्कार करने की परम्परा प्रारम्भ हुई। तीर्थंकर अर्थात् अरिहंत प्रत्यक्ष उपकारी होने से पंचनमस्कार महामंत्र में उन्हें प्रथम स्थान दिया गया है। ई.पूर्व महाराज खारवेल, जो कलिंगाधिपति थे, उन्होंने जो शिलालेख उटंकित करवाये, उनमें प्रथम अरिहंत को नमस्कार किया गया है
और उसके बाद सिद्ध को। ६०. देखिए, पन्नवणासुत्तं, भाग २, प्रका. महावीर जैन विद्यालय बम्बई प्रस्तावना पृष्ठ १४-१५ ६१. एत्थ पुण णियमो णत्थि, परमागमुवजोगम्मि णियमेण मंगलफलोवलंभादो। -कसायपाहुड, भाग १, गाथा १, पृष्ठ ९. ६२. एदस्थ अत्थविसेसस्स जणावणटुं गुणहरभट्टारएण गंथस्सादीए ण मंगलं कयं। -कसायपाहुड, भाग १, गाथा १, पृष्ठ ९.
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