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________________ २५६] [प्रज्ञापना सूत्र बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक और बादर वायुकायिक पर्याप्तक यथोत्तरक्रम से असंख्यातगुणे हैं। इसके समाधान के लिए पूर्ववत् युक्ति सोच लेनी चाहिए। उनसे बादर तेजस्कायिक-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं; क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाशप्रदेशप्रमाण हैं। उसके बाद प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादरपृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक, बादर वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रम से असंख्यातगुणे हैं। उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक-अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं, उनसे सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्त संख्यातगुणे है, क्योंकि सूक्ष्मों में अपर्याप्तों की अपेक्षा पर्याप्त ओघतः ही संख्येयगुणे होते हैं। उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक एवं सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रम से विशेषाधिक हैं। उनसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुररूप में सर्वलोक में होते हैं। उनसे पूर्व नियमानुसार सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। उनसे बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तक अनन्तगुणे है; यह भी पूर्वोक्त युक्ति से समझ लेना चाहिए। उनसे बादर पर्याप्तक विशेषाधिक हैं; क्योंकि उनमें बादर पर्याप्त तेजस्कायिकादि का भी समावेश हो जाता है। उनसे बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादर निगोद के आश्रित असंख्यात बादर निगोद-अपर्याप्तक उत्पन्न होते हैं। उनकी अपेक्षा सामान्यतया बादर विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तकों का समावेश भी होता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्त असंख्येयगुणे हैं, क्योंकि बादरनिगोदों से सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तक असंख्यातगुणे होते ही हैं। उनसे सामान्यतया सूक्ष्मअपर्याप्तक संख्यातगुणे हैं; क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायादि के अपर्याप्तकों का भी उनमें समावेश होता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्त असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि इनके अपर्याप्तों से पर्याप्त संख्यातगुणे होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें पर्याप्तक सूक्ष्म पृथ्वीकायिकादि का भी समावेश होता है। उनकी अपेक्षा पर्याप्त-अपर्याप्तविशेषण रहित केवल सूक्ष्म (सामान्य) विशेषाधिक हैं, क्योंकि इनमें पर्याप्त-अपर्याप्त दोनों का समावेश हो जाता है। इस प्रकार सूक्ष्म-बादर-समुदायगत अल्पबहुत्व समझ लेना चाहिए। ॥ चतुर्थ कायद्वार समाप्त॥ पंचम योगद्वार : योगों की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व __२५२. एतेसि णं भंते! जीवाणं सजोगीणं मणजोगीणं वइजोगीणं कायजोगीणं अजोगीण य कतरे कतरेहितो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ? गोयमा! सव्वत्थोवा जीवा मणजोगी १, वइजोगी असंखेन्जगुणा २, अजोगी अणंतगुणा ३, कायजोगी अणंतगुणा ४, सजोगी विसेसाहिया ५। दारं ५॥ १. (क) पण्णवणासुत्त (मूलपाठ युक्त) भा. १, पृ. ८८ से ९६ तक (ख) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक पृ. १२४ से १३४ तक
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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