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________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [२५५ अपर्याप्त उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं। इसका स्पष्टीकरण द्वितीय अपर्याप्तकसूत्र की तरह समझना चाहिए। बादर वायुकायिक अपर्याप्तकों से सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर असंख्यात लोकाकाशप्रदेशों के बराबर हैं, उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक, सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं; इसका समाधान सूक्ष्मपंचसूत्री में द्वितीयसूत्रवत् समझ लेना चाहिए। सूक्ष्म निगोद-अपर्याप्तकों से बादर वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक जीव अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में अनन्त जीवों का सद्भाव है। उनसे सामान्यतः बादर अपर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि बादर त्रसकायिक अपर्याप्तकों का भी उनमें समावेश है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादर निगोद-अपर्याप्तकों से सूक्ष्म निगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्मापर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्तकों का भी समावेश हो जाता है। पर्याप्तकों में (सू. २४९ के अनुसार) बादर तेजस्कायिक पर्याप्तक सबसे थोड़े हैं। उसके पश्चात् बादर त्रसकायिक, बादर प्रत्येकशरीर वनस्पतिकायिक, बादर निगोद, बादर पृथ्वीकायिक, बादर अप्कायिक एवं बादर वायुकायिक-पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादर वायुकायिक असंख्यातप्रतर-प्रदेश-राशिप्रमाण हैं। उसके पश्चात् सूक्ष्म पृथ्वीकायिक, सूक्ष्म अप्कायिक, सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः विशेषाधिक हैं। सूक्ष्म वायुकायिक-पर्याप्तकों से सूक्ष्मनिगोद-पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर होने से प्रत्येक गोलक में विद्यमान हैं। उनसे बादर वनस्पतिकायिकपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक बादरनिगोद में अनन्त-अनन्त जीव होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म तेजस्कायिकादि पर्याप्तकों का भी समावेश होता है। १४. सूक्ष्म-बादर पर्याप्तक-अपर्याप्तकों, का पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व-(सूत्र २५० के अनुसार) सबसे कम बादर पर्याप्तक हैं, क्योंकि वे परिमित क्षेत्रवर्ती हैं, उनसे बादर अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि एक-एक बादर पर्याप्तक के आश्रित असंख्यात बादर अपर्याप्तक उत्पन्न होते है; उनसे सूक्ष्म अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि सर्वलोक में व्याप्त होने के कारण उनका क्षेत्र असंख्यातगुणा है; उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, क्योंकि चिरकालस्थायी रहने के कारण वे सदैव संख्यातगुणे पाए जाते हैं। इसी प्रकार आगे सूक्ष्म-बादर पृथ्वीकायिक, अप्कायिक, तेजस्कायिक, वायुकायिक वनस्पतिकायिक एवं निगोदों के पर्याप्तकों-अपर्याप्तकों के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की घटना कर लेनी चाहिए। १५. समुदितरूप में सूक्ष्म-बादर के पर्याप्तक-अपर्याप्तकों का अल्पबहुत्व—(सू. २५१ के अनुसार) सबसे अल्प बादर तेजस्कायिक हैं, क्योंकि कुछ समय कम आवलिका-समयों से गुणित आवलिका-समयवर्ग में जितनी समयराशि होती है, वे उतने प्रमाण हैं। उनसे बादर त्रसकायिक पर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि प्रतर में जितने अंगुल के संख्यातभाग-मात्र खण्ड होते हैं, ये उतने प्रमाण हैं। उनसे बादरत्रसकायिक अपर्याप्त असंख्यातगुणे हैं। जो पूर्ववत् युक्ति से समझना चाहिए। उनसे प्रत्येक
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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