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तृतीय बहुवक्तव्यतापद ]
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४. सूक्ष्म से लेकर सूक्ष्मनिगोद तक के पर्याप्तक- अपर्याप्तक जीवों का पृथक्-पृथक् अल्प बहुत्व- इनके प्रत्येक के अल्पबहुत्व में सूक्ष्म अपर्याप्तक सबसे कम हैं और उनसे सूक्ष्म पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं। सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों की अपेक्षा पर्याप्तक जीव चिरकालस्थायी रहते हैं । इसलिए वे सदैव अधिक संख्या में पाए जाते हैं ।
५. समुदितरूप में सूक्ष्मपर्याप्तक- अपर्याप्तक जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे अल्प सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त हैं, कारण पहले बता चुके हैं। उनसे उत्तरोत्तर क्रमशः सूक्ष्म पृथ्वीकायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म अप्कायिक अपर्याप्त, सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त विशेषाधिक हैं, विशेषाधिक का अर्थ है— थोड़ा अधिक; न दुगुना, न तिगुना । इनकी विशेषाधिकता का कारण पहले कहा जा चुका है। उनकी (सूक्ष्म वायुकायिक अपर्याप्त की) अपेक्षा सूक्ष्म तेजस्कायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं, अपर्याप्त से पर्याप्त संख्यातगुणे अधिक होते हैं। यह पहले कहा जा चुका है। अतः उनसे सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तक सूक्ष्म अप्कायिक पर्याप्तक एवं सूक्ष्म वायुकायिक पर्याप्तक उत्तरोत्तर क्रमशः संख्यात गुणे हैं, उनसे सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अतिप्रचुर संख्या में हैं। उनसे सूक्ष्म निगोद पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं क्योंकि सूक्ष्म जीवों में अपर्याप्तकों से पर्याप्त सामान्यतः संख्यातगुणे अधिक होते हैं। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक अपर्याप्तक अनन्तगुणे हैं, क्योंकि प्रत्येक निगोद में वे अनन्त - अनन्त होते हैं। उनसे सामान्यतः सूक्ष्म अपर्याप्त जीव विशेषाधिक हैं; क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक का भी उनमें समावेश हो जाता है। उनसे सूक्ष्म वनस्पतिकायिक पर्याप्तक संख्यातगुणे हैं इसका कारण पहले कहा जा चुका है। उनकी अपेक्षा सूक्ष्म पर्याप्तक विशेषाधिक हैं, क्योंकि सूक्ष्म पृथ्वीकायिक पर्याप्तकों का भी उनमें समावेश है। उनसे सूक्ष्म जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उनमें सूक्ष्म पर्याप्तकों- अपर्याप्तकों, सभी का समावेश हो जाता है । इस प्रकार सूक्ष्माश्रित पांच सूत्र हुए। अब बादराश्रित पांच सूत्र इस प्रकार हैं
६. समुच्चय में बादर जीवों का अल्पबहुत्व - सबसे कम बादर त्रसकायिक है, क्योंकि द्वीन्द्रियादि ही बादर ! हैं, और वे शेष कार्यों से अल्प हैं। उनसे बादर तेजस्कायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे असंख्यात लोकाकाश-प्रदेश - प्रमाण हैं। उनसे प्रत्येकशरीर बादर वनस्पतिकायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि बादर तेजस्कायिक तो सिर्फ मनुष्यक्षेत्र में ही होते हैं, जबकि प्रत्येक शरीर बादर वनस्पतिकायिकों का क्षेत्र उनसे असंख्यातगुणा अधिक है। प्रज्ञापनासूत्र के द्वितीय स्थानपद में बताया है कि स्वस्थान में ७ घनोदधि, ७ घनोदधिवलय इसी तरह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक, तिरछे लोक आदि में जहाँ-जहाँ जलाशय होते हैं, वहाँ सर्वत्र बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों के स्थान हैं । जहाँ बादर वनस्पतिकायिक पर्याप्तकों के स्थान हैं, वहीं इनके अपर्याप्तकों के स्थान होते हैं । अतः क्षेत्र असंख्यातगुणा होने से वे भी असंख्यातगुणे हैं। उनसे बादर निगोद असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि वे अत्यन्त सूक्ष्म अवगाहनावाले होने के कारण जल में शैवाल आदि के रूप में सर्वत्र पाए जाते हैं । इनकी अपेक्षा बादर पृथ्वीकायिक असंख्यातगुणे हैं, क्योंकि
आठ पृथ्विों में तथा विमानों, भवनों एवं पर्वतों आदि में विद्यमान हैं। बादर अप्कायिक उनसे भी