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________________ तृतीय बहुवक्तव्यतापद] [२२१ इसलिए प्रायः सर्वत्र समान ही हैं। बादर जीवों में वनस्पतिकायिक जीव सबसे अधिक हैं। ऐसी स्थिति में जहाँ वनस्पति अधिक है, वहाँ जीवों की संख्या अधिक है, जहाँ वनस्पति की अल्पता है, वहाँ जीवों की संख्या भी अल्प है। वनस्पति वहीं अधिक होती है, जहाँ जल की प्रचुरता होती है। 'जत्थ जलं तत्थ वणं' इस उक्ति के अनुसार जहाँ जल होता है, वहाँ वन अर्थात् पनक, शैवाल आदि वनस्पति अवश्य होती हैं। बादरनामकर्म के उदय से पनक आदि की गणना बादर वनस्पतिकाय में होने पर भी उनकी अवगाहना अतिसूक्ष्म होने तथा उनके पिण्डीभूत हो कर रहने के कारण सर्वत्र विद्यमान होने पर भी वे नेत्रों से ग्राह्य नहीं होते। 'जहाँ अप्काय होता है, वहाँ नियमतः वनस्पति-कायिक जीव होते हैं;' इस वचनानुसार समुद्र आदि में प्रचुर जल होता है और समुद्र द्वीपों की अपेक्षा दुगुने विस्तार वाले हैं। उन समुद्रों में भी प्रत्येक में पूर्व और पश्चिम में क्रमश: चन्द्रद्वीप और सूर्यद्वीप हैं। जितने प्रदेश में चन्द्रसूर्यद्वीप स्थित हैं, उतने प्रदेश में जल का अभाव है। जहाँ जल का अभाव है, वहाँ वनस्पतिकायिक जीवों का अभाव होता है। इसके अतिरिक्त पश्चिमदिशा में लवण-समुद्र के अधिपति सुस्थित नामक देव का आवासरूप गौतमद्वीप है, जो लवणसमुद्र से भी अधिक विस्तृत है। वहाँ भी जल का अभाव होने से वनस्पतिकायिकों का अभाव है। इसी कारण पश्चिम दिशा में सबसे कम जीव पाए जाते हैं। पश्चिमदिग्वर्ती जीवों से पूर्व दिशा में विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि पूर्व दिशा में गौतमद्वीप नहीं है, अतएव वहाँ उतने जीव अधिक हैं, दक्षिणदिशा में पूर्वदिग्वर्ती जीवों से विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि दक्षिण में चन्द्रसूर्यद्वीप न होने से प्रचुर जल है, इस कारण वनस्पतिकायिक जीव भी बहुत हैं। उत्तर में दक्षिणदिग्वर्ती जीवों की अपेक्षा विशेषाधिक जीव हैं, क्योंकि उत्तरदिशा में संख्यात योजन वाले द्वीपों में से एक द्वीप में संख्यातकोटि-योजन-प्रमाण लम्बा-चौड़ा एक मानस-सरोवर है, उससे जल की प्रचुरता होने से वनस्पतिकायिक जीवों की बहुलता है। इसी प्रकार जलाश्रित शंखादि द्वीन्द्रिय जीव, समुद्रादितटोत्पन्न शंख आदि के आश्रित चींटी(पिपीलिका) आदि त्रीन्द्रिय जीव, कमल आदि में निवास करने वाले भ्रमर आदि चतुरिन्द्रिय जीव तथा जलचर मत्स्य आदि पंचेन्द्रिय जीव भी उत्तर में विशेषाधिक हैं। विशेषरूप से दिशाओं की अपेक्षा जीवों का अल्पबहुत्व—(१) पृथ्वीकायिकों का अल्पबहुत्व–दक्षिणदिशा में सबसे कम पृथ्वीकायिक इसलिए हैं कि पृथ्वीकायिक जीव वहीं अधिक होते हैं, जहाँ ठोस स्थान होता है, जहाँ छिद्र या पोल होती है, वहाँ बहुत कम होते हैं। दक्षिणदिशा में बहुत-से भवनपतियों के भवन और नरकावास होने के कारण छिद्रों और पोली जगहों की अल्पता है। दक्षिण दिशा की अपेक्षा उत्तरदिशा में पृथ्वीकायिक जीव विशेषाधिक हैं, क्योंकि उत्तरदिशा में भवनपतियों १. (क) प्रज्ञापनासूत्र मलय. वृत्ति, पत्रांक ११३-११४ (ख) अट्ठपएसो रुयगो तिरियलोयस्स मज्झयारंम्मि। ___एस पभवो दिसाणं, एसेव भवे अणुदिसाणं ॥ १॥ (ग) 'ते णं बालग्गा सुहुमपणग जीवस्स सरीरोगाहणाहिंतो असंखेजगुणा।' -अनुयोद्वारसूत्र (घ) 'जत्थ आउकाओ, तत्थ नियमा वणस्सइकाइया।'
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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