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________________ २२०] [प्रज्ञापना सूत्र [६] दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा देवा लंतए कप्पे पुरत्थिम-पच्चत्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। [२२३-६] दिशाओं को लेकर सबसे थोड़े देव लान्तककल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं। (उनसे) असंख्यातगुणे दक्षिण में हैं। [७] दिसाणुवाएणं सव्वत्थोवा देवा महासुक्के कप्पे पुरत्थिम-पच्चत्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। [२२३-७] दिशाओं की दृष्टि से सबसे कम देव महाशुक्रकल्प में पूर्व, पश्चिम एवं उत्तर में हैं। दक्षिण में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं। [८] दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा देवा सहस्सारे कप्पे पुरत्थिम-पच्चत्थिम-उत्तरेणं, दाहिणेणं असंखेज्जगुणा। [२२३-८] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे कम देव सहस्रारकल्प में पूर्व, पश्चिम और उत्तर में हैं। दक्षिण में (उनसे) असंख्यातगुणे हैं। [९] तेण परं बहुसमोववण्णगा समणाउसो!। [२२३-९] हे आयुष्मन् श्रमणो! उससे आगे (के प्रत्येक कल्प में, प्रत्येक ग्रैवेयक में तथा प्रत्येक अनुत्तरविमान में चारों दिशाओं में) बहुत (बिल्कुल) सम उत्पन्न होने वाले हैं। २२४. दिसाणुवातेणं सव्वत्थोवा सिद्धा दाहिणुत्तरेणं, पुरत्थिमेणं संखेज्जगुणा, पच्चत्थिमेणं विसेसाहिया। दारं १॥ [२२४] दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प सिद्ध दक्षिण और उत्तरदिशा में हैं। पूर्व में (उनसे) संख्यातगुणे हैं और पश्चिम में (उनसे) विशेषाधिक हैं। -प्रथमद्वार ॥ १॥ __विवेचन—प्रथम दिशाद्वार : दिशाओं की अपेक्षा से जीवों का अल्पबहुत्व—प्रस्तुत बारह सूत्रों (सू. २१३ से २२४ तक) में से प्रथमसूत्र में दिशा की अपेक्षा से अधिक जीवों के अल्पबहुत्व की और शेष ११ सूत्रों में पृथ्वीकायादि एकेन्द्रिय जीवों से लेकर अनुत्तर विमानवासी वैमानिक देवों तक के पृथक्-पृथक् अल्पबहुत्व की प्ररूपणा की गई है। दिशाओं की अपेक्षा में आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध में द्रव्यदिशा और भावदिशा के अनेक भेद बताए गए हैं, किन्तु यहाँ उनमें से क्षेत्रदिशाओं का ही ग्रहण किया गया है, क्योंकि अन्य दिशाएँ यहाँ अनुपयोगी हैं और प्रायः अनियत हैं। क्षेत्रदिशाओं की उत्पत्ति (प्रभव) तिर्यक्लोक के मध्य में स्थित आठ रूचकप्रदेशों से है। वही सब दिशाओं का केन्द्र है। औधिक जीवों का अल्पबहुत्व—दिशाओं की अपेक्षा से सबसे अल्प जीव पश्चिम दिशा में हैं, क्योंकि उस दिशा में बादर वनस्पति की अल्पता है। यहाँ बादर जीवों की अपेक्षा से ही अल्पबहुत्व का विचार किया गया है, सूक्ष्म जीवों की अपेक्षा से नहीं, क्योंकि सूक्ष्मजीव तो समग्र लोक में व्याप्त हैं,
SR No.003456
Book TitleAgam 15 Upang 04 Pragnapana Sutra Part 01 Stahanakvasi
Original Sutra AuthorShyamacharya
AuthorMadhukarmuni, Gyanmuni, Shreechand Surana, Shobhachad Bharilla
PublisherAgam Prakashan Samiti
Publication Year1983
Total Pages572
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, Metaphysics, & agam_pragyapana
File Size12 MB
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